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ToggleBhagavad Gita: Chapter 1, Verse 1
धृतराष्ट्र उवाच ।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १ ॥
Dharmakshetre kurukshetre samveta yuyutsavah.
Maamkah pandavaschaiv kimakurvat sanjaya . 1 .
Translation
धृतराष्ट्र बोले- हे सञ्जय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित, युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? ॥ १॥
Dhritarashtra said, “O Sanjaya! What did my and Pandu’s sons, who were eager for war, do when they gathered at the holy land of Kurukshetra?” ॥1॥
QUESTION & ANSWER
प्रश्न-कुरुक्षेत्र किस स्थानका नाम है और उसे धर्मक्षेत्र क्यों कहा जाता है ?
उत्तर- महाभारत, वनपर्वके तिरासीवें अध्यायमें और शल्यपर्वके तिरपनवें अध्यायमें कुरुक्षेत्रके माहात्म्यका विशेष वर्णन मिलता है; वहाँ इसे सरस्वती नदीके दक्षिणभाग और दृषद्वती नदीके उत्तरभागके मध्यमें बतलाया है। कहते हैं कि इसकी लंबाई-चौड़ाई पाँच-पाँच योजन थी। यह स्थान अंबालेसे दक्षिण और दिल्लीसे उत्तरकी ओर है। इस समय भी कुरुक्षेत्र नामक स्थान वहीं है। इसका एक नाम समन्तपञ्चक भी है। शतपथब्राह्मणादि शास्त्रोंमें कहा है कि यहाँ अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा आदि देवताओंने तप किया था; राजा कुरुने भी यहाँ बड़ी तपस्या की थी तथा यहाँ मरनेवालोंको उत्तम गति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और भी कई बातें हैं, जिनके कारण उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र कहा जाता है।
प्रश्न- धृतराष्ट्रने ‘मामकाः’ पदका प्रयोग किनके लिये किया है और ‘पाण्डवाः’ का किनके लिये ? और उनके साथ ‘समवेताः’ और ‘युयुत्सवः’ विशेषण लगाकर जो ‘किम् अकुर्वत’ कहा है, उसका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- मामकाः पाण्डवाश्चैव का प्रयोग धृतराष्ट्रने निज पक्षके समस्त योद्धाओंसहित अपने दुर्योधनादि एक सौ एक पुत्रोंके लिये किया है और ‘पाण्डवाः’ पदका युधिष्ठिर-पक्षके सब योद्धाओंसहित युधिष्ठिरादि पाँचों भाइयोंके लिये । ‘समवेताः’ और ‘युयुत्सवः’ विशेषण देकर और ‘किम् अकुर्वत’ कहकर धृतराष्ट्रने गत दस दिनोंके भीषण युद्धका पूरा विवरण जानना चाहा है कि युद्धके लिये एकत्रित इन सब लोगोंने युद्धका प्रारम्भ कैसे किया ? कौन किससे कैसे भिड़े ? और किसके द्वारा कौन, किस प्रकार और कब मारे गये ? आदि ।
भीष्मपितामहके गिरनेतक भीषण युद्धका समाचार धृतराष्ट्र सुन ही चुके हैं, इसलिये उनके प्रश्नका यह तात्पर्य नहीं हो सकता कि उन्हें अभी युद्धकी कुछ भी खबर नहीं है और वे यह जानना चाहते हैं कि क्या धर्मक्षेत्रके प्रभावसे मेरे पुत्रोंकी बुद्धि सुधर गयी और उन्होंने पाण्डवोंका स्वत्व देकर युद्ध नहीं किया ? अथवा क्या धर्मराज युधिष्ठिर ही धर्मक्षेत्रके प्रभावसे प्रभावित होकर युद्धसे निवृत्त हो गये ? या अबतक दोनों सेनाएँ खड़ी ही हैं, युद्ध हुआ ही नहीं और यदि हुआ तो उसका क्या परिणाम हुआ ? इत्यादि ।
Question-Which place is called Kurukshetra and why is it called Dharmakshetra?
Answer- In the 83rd chapter of Mahabharata, Vanaparva and 53rd chapter of Shalyaparva, special description of the greatness of Kurukshetra is found; there it is said to be situated between the southern part of Saraswati river and the northern part of Drishadvati river. It is said that its length and breadth were five yojanas each. This place is south of Ambala and north of Delhi. Even today, the place called Kurukshetra is there. One of its names is Samantapanchaka. It is said in Shatapath Brahmana and other scriptures that gods like Agni, Indra, Brahma etc. had performed penance here; King Kuru had also performed great penance here and those who die here attain a good state. Apart from this, there are many other things due to which it is called Dharmakshetra or Punyakshetra.
Question- For whom did Dhritarashtra use the word ‘Maamkaah’ and for whom did he use ‘Pandavaah’? And what is the meaning of the adjective ‘Samvetaah’ and ‘Yuyutsavah’ which has been said and said ‘Kim Akurvat’?
Answer: Dhritarashtra has used Mamakah Pandavaschaiva for his one hundred and one sons including Duryodhana and all the warriors of his own side and the word ‘Pandavah’ has been used for all the warriors of Yudhishthir’s side and the five brothers of Yudhishthira. By giving the adjectives ‘Samavetaah’ and ‘Yyuutsavah’ and by saying ‘Kim Akurvat’, Dhritarashtra wanted to know the complete details of the fierce war of the last ten days, how did all these people gathered for the war, start the war? Who fought with whom and how? And by whom, who was killed, how and when? Etcetera .
Dhritarashtra had already heard the news of the fierce war till Bhishma Pitamah fell, so the meaning of his question cannot be that he has no news of the war yet and he wants to know whether the wisdom of my sons improved due to the effect of Dharmakshetra and they did not fight the war by giving the rights to the Pandavas? Or did Dharmaraja Yudhishthir himself withdraw from the war after being influenced by the effect of Dharmakshetra? Or till now both the armies are standing, the war did not take place and if it did, then what was its result? etc.
Bhagavad Gita: Chapter 1, Verse 2
सम्बन्ध - धृतराष्ट्रके पूछनेपर सञ्जय कहते हैं-
Relation - On Dhritarashtra's asking, Sanjaya says-
सञ्जय उवाच ।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
Drushtva tu pandavanikam vyudham duryodhanastada .
Aacharyamupsangamya raja vachanamabravit . 2 .
सञ्जय बोले- उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकर और दोणाचार्यके पास जाकर यह वचन कहा ॥ २ ॥
Sanjaya said: At that time King Duryodhana, upon seeing the Pandava army arrayed in battle formation, went to Dronacharya and said these words. ॥2॥
QUESTION & ANSWER
Bhagavad Gita: Chapter 1, Verse 3
सम्बन्ध- द्रोणाचार्यके पास जाकर दुर्योधनने जो कुछ कहा, अब उसे बतलाते हैं-
Relation- Now let us tell you what Duryodhan said after going to Dronacharya-
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३ ॥
Pashyaitam panduputranamacharya mahatim chamum .
Vyudham drupadputren tav shishyen dhimta . 3 .
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये ।। ३ ।।
O Acharya! Look at this huge army of the sons of Pandu lined up in battle formation by your intelligent disciple Dhrishtadyumna, son of Drupada. 3.
QUESTION & ANSWER
प्रश्न- धृष्टद्युम्न द्रुपदका पुत्र है, आपका शिष्य है और बुद्धिमान् है – दुर्योधनने ऐसा किस अभिप्रायसे कहा ?
उत्तर- दुर्योधन बड़े चतुर कूटनीतिज्ञ थे। धृष्टद्युम्नके प्रति प्रतिहिंसा तथा पाण्डवोंके प्रति द्रोणाचार्यकी बुरी भावना उत्पन्न करके उन्हें विशेष उत्तेजित करनेके लिये दुर्योधनने धृष्टद्युम्नको द्रुपदपुत्र और ‘आपका बुद्धिमान् शिष्य’ कहा। इन शब्दोंके द्वारा वह उन्हें इस प्रकार समझा रहे हैं कि देखिये, द्रुपदने आपके साथ पहले बुरा बर्ताव किया था और फिर उसने आपका बध करनेके उद्देश्यसे ही यज्ञ करके धृष्टद्युम्नको पुत्ररूपसे प्राप्त किया था। धृष्टद्युम्न इतना कूटनीतिज्ञ है और आप इतने सरल हैं कि आपको मारनेके लिये पैदा होकर भी उसने आपके ही द्वारा धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त कर ली। फिर इस समय भी उसकी बुद्धिमानी देखिये कि उसने आपलोगोंको छकानेके लिये कैसी सुन्दर व्यूहरचना की है। ऐसे पुरुषको पाण्डवोंने अपना प्रधान सेनापति बनाया है। अब आप ही विचारिये कि आपका क्या कर्तव्य है।
प्रश्न-कौरव-सेना ग्यारह अक्षौहिणी थी और पाण्डव-सेना केवल सात ही अक्षौहिणी थी; फिर दुर्योधनने उसको बड़ी भारी (महती) क्यों कहा और उसे देखनेके लिये आचार्यसे क्यों अनुरोध किया ?
उत्तर – संख्यामें कम होनेपर भी वज्रव्यूहके कारण पाण्डव-सेना बहुत बड़ी मालूम होती थी; दूसरे यह बात भी है कि संख्यामें अपेक्षाकृत स्वल्प होनेपर भी जिसमें पूर्ण सुव्यवस्था होती है, वह सेना विशेष शक्तिशालिनी समझी जाती है। इसीलिये दुर्योधन कह रहे हैं कि आप इस व्यूहाकार खड़ी की हुई सुव्यवस्थित महती सेनाको देखिये और ऐसा उपाय सोचिये जिससे हमलोग विजयी हों।
Question- Dhrishtadyumna is the son of Drupada, your disciple and intelligent – what was the intention behind Duryodhan saying this?
Answer- Duryodhan was a very clever diplomat. To provoke Dronacharya by creating ill feelings towards him and taking revenge against Dhrishtadyumna, Duryodhan called Dhrishtadyumna the son of Drupada and ‘your intelligent disciple’. By these words, he is explaining to him that look, Drupada had earlier behaved badly with you and then he performed a yagya with the sole purpose of killing you and got Dhrishtadyumna as his son. Dhrishtadyumna is such a diplomat and you are so simple that even after being born to kill you, he learnt Dhanur Veda from you. Then see his intelligence even now that what a beautiful strategy he has made to fool you people. The Pandavas have made such a man their chief commander. Now you yourself think what your duty is.
Question- The Kaurava army was eleven Akshauhini and the Pandava army was only seven Akshauhini; then why did Duryodhan call it very huge and why did he request the Acharya to see it?
Answer- Even though the number was less, due to the Vajravyuha, the Pandava army seemed very big; secondly, even though the number is relatively small, an army which has complete order is considered to be very powerful. That is why Duryodhan is saying that you should see this well-organized and huge army standing in the formation and think of a way by which we can be victorious.
सम्बन्ध- द्रोणाचार्यके पास जाकर दुर्योधनने जो कुछ कहा, अब उसे बतलाते हैं-
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३ ॥
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये ।। ३ ।।
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाकी व्यूहरचना दिखलाकर अब दुर्योधन तीन श्लोकों द्वारा पाण्डव-सेनाके प्रमुख महारथियोंके नाम बतलाते हैं-
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४ ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्चशैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥५॥
युधाम् ——_–क्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६ ॥
इस सेनामें बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्धमें भीम और अर्जुनके समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मुनष्योंमें श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं ॥ ४-५-६ ॥
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाके प्रधान योद्धाओंके नाम बतलाकर अब दुयोंधन आचार्य द्रोणसे अपनी सेनाके प्रधान योद्धाओंको जान लेनेके लिये अनुरोध करते हैं-
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम । नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते ॥ ७ ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्षमें भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारीके लिये मेरी सेनाके जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ ।। ७ ।।
सम्बन्ध-अब दो श्लोकोने दुयोंधन अपने पक्षके प्रधान वीरोंके नाम बतलाते हुए अन्यान्य वीरोके सहित उनकी प्रशंसा करते हैं
भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ ८ ॥
आप – द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा ॥ ८ ॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।। ९ ।।
और भी मेरे लिये जीवनकी आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित और सब के सब युद्धमें चतुर हैं ।॥ ९ ॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १० ॥
भीष्मपितामहद्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकारसे अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगोंकी यह सेना जीतनेमें सुगम है ॥ १० ॥
सम्बन्य–इस अकार भीष्मद्वारा संरक्षित अपनी सेनाको अजेय बताकर, अब दुर्योधन सब ओरसे भीष्मकी रक्षा करनेके लिये द्रोणाचार्य आदि समस्त महारथियोंसे अनुरोध करते हैं-
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥
इसलिये सब मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसन्देह भीष्मपितामहकी ही सब ओरसे रक्षा करें ॥ ११ ॥
सम्बन्ध – दुर्योधनके द्वारा अपने पक्षके महारथियोंकी विशेषरूपसे पितामह भीष्मकी प्रशंसा किये जानेका वर्णन सुनाकर अब सञ्जय उसके बादकी घटनाओंका वर्णन करते हैं-
तस्य संजनयन् हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥
कौरवोंमें वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्मने उस दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वरसे सिंहकी दहाड़के समान गरजकर शङ्ख बजाया ॥ १२ ॥
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥
इसके पश्चात् शङ्ख और नगारे तथा ढोल, मृदङ्ग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही उठे । उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – धृतराष्ट्रने पूछा था कि युद्धके लिये एकत्र होनेके बाद मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया, इसके उत्तरमें सञ्जयने अबतक धृतराष्ट्रके पक्षवालोंकी बात सुनायी; अब पाण्डवोंने क्या किया, उसे पाँच श्लोकोंमें बतलाते हैं-
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥
इसके अनन्तर सफेद घोड़ोंसे युक्त उत्तम रथमें बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुनने भी अलौकिक शङ्ख बजाये ॥ १४ ॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्डूं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥
श्रीकृष्ण महाराजने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुनने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्र नामक महाशङ्ख बजाया ॥ १५ ॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शङ्ख बजाये ॥ १६ ॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ १७ ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ १८ ॥
श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और इत- अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु – इन सभीने, हे राजन् ! सब ओरसे अलग-अलग शङ्ख बजाये ॥ १७-१८ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके पश्चात् पाण्डव-सेनाके अन्यान्य शूरवीरोंद्वारा सब ओर शङ्ख बजाये जानेकी बात कहकर अब उस शङ्खध्वनिका क्या परिणाम हुआ ? उसे सञ्जय बतलाते हैं-
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९ ॥
और उस भयानक शब्दने आकाश और पृथ्वीको भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रोंके यानी आपके पक्षवालोंके हृदय विदीर्ण कर दिये ॥ १९ ॥
सम्बन्ध-पाण्डवोंकी शङ्खध्वनिसे कौरववीरोंके व्यथित होनेका वर्णन करके, अब चार श्लोकोंमें भगवान् श्रीकृष्णके प्रति कहे हुए अर्जुनके उत्साहपूर्ण वचनोंका वर्णन किया जाता है-
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ २० ॥ हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुनने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको उस शस्त्र चलनेकी तैयारीके समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराजसे यह देखकर, वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ॥ २०-२१ ॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥
और जबतक कि मैं युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओंको भल प्रकार देख लूँ कि इस युद्धरूप व्यापारमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना योग्य है, तबतक उसे खड़ा रखिये ।। २२ ॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥
दुर्बुद्धि दुर्योधनका युद्धमें हित चाहनेवाले जो-जो ये राजालोग इस सेनामें आये हैं, इन युद्ध करनेवालोंको मैं देखूँगा ॥ २३ ॥
सम्बन्ध-अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर भगवान्ने क्या किया ? अब दो श्लोकोंमें सञ्जय उसका वर्णन करते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥ २५ ॥
सञ्जय बोले- हे धृतराष्ट्र ! अर्जुनद्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्रने दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणाचार्यके सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने उत्तम रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्धके लिये जुटे हुए इन कौरवोंको देख ॥ २४-२५ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण———सुनकर अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं–
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान् भ्रातून पुत्रान् पौत्रान् सर्वीस्तथा ॥ २६ ॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
इसके बाद पृथापुत्र अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित ताऊ-चाचोंको, दादों-परदादोंको, गुरुओंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुहृदोंको भी देखा ॥ २६ और २७ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-इस प्रकार सबको देखनेके बाद अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं-
तान् समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ २७ ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओंको देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणासे युक्त होकर शोक करते हुए यह बचन बोले ॥ २७ वेंका उत्तरार्ध और २८ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-बन्धुस्नेहके कारण अर्जुनकी कैसी स्थिति हुई, अब ढाई श्लोकोंमें अर्जुन स्वयं उसका वर्णन करते हैं-
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ २८ ॥ सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥ २९ ॥
अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इस स्वजन समुदायको देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीरमें कम्प एवं होमाञ्च हो रहा है ॥ २८वेंका उत्तरार्ध और २९ ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३० ॥
हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहनेको भी समर्थ नहीं हूँ ॥ ३० ॥
सम्बन्ध—अपनी विषादयुक्त स्थितिका वर्णन करके अब अर्जुन अपने विचारोंके अनुसार युद्धका अनौचित्य सिद्ध करते हैं-
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥
हे केशव ! मैं लक्षणोंको भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्धमें स्वजन-समुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता ॥ ३१ ॥
सम्बन्ध – अर्जुनने यह कहा कि स्वजनोंको मारनेसे किसी प्रकारका भी हित होनेकी सम्भावना नहीं है, अब फिर वे उसीकी पुष्टि करते हैं-
न काले विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥
हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही । हे गोविन्द ! ह ऐसे राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगोंसे और जीवनसे भी क्या लाभ है ? ॥ ३२ ॥
सम्बन्ध – अब अर्जुन स्वजनवधसे मिलनेवाले राज्य-भोगादिको न चाहनेका कारण दिखलाते हैं-
येषामर्थे काङ्क्षित्तं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥
हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको त्यागकर युद्धमें खड़े हैं ॥ ३३ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार युद्धका अनौचित्य दिखलाकर अब अर्जुन युद्धमें मरनेके लिये तैयार होकर आये हुए स्वजन-समुदायमें कौन-कौन है उनका संक्षेप में वर्णन करते हैं?
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।। ३४ ।।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ।॥ ३४ ॥
सम्बन्ध – सेनामें उपस्थित शूरवीरोंके साथ अपना सम्बन्ध बतलाकर अब अर्जुन किसी भी हेतुसे इन्हें मारनेमें अपनी अनिच्छा प्रकट करते हैं-
एतान्न हन्तुमिच्छामि प्घ्नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ ३५ ॥
हे मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वीके लिये तो कहना ही क्या है ? ॥ ३५ ॥
सम्बन्ध-यहाँ यदि यह पूछा जाय कि आप त्रिलोकीके राज्यके लिये भी उनको मारना क्यों नहीं चाहते, तो इसपर अर्जुन अपने सम्बन्धियोंको मारनेमें लाभका अभाव और पापकी सम्भावना बतलाकर अपनी बातको पुष्ट करते हैं-
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियोंको मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ॥ ३६ ॥
सम्बन्ध – स्वजनोंको मारना सब प्रकारसे हानिकारक बतलाकर अब अर्जुन अपना मत प्रकट कर रहे हैं-
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥
अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्बको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ॥ ३७ ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि कुटुम्ब-नाशसे होनेवाला दोष तो दोनोंके लिये समान ही है; फिर यदि इस दोषपर विचार करके दुर्योधनादि युद्धसे नहीं हटते, तब तुम ही इतना विचार क्यों करते हो ? अर्जुन दो श्लोकोंमें इस प्रश्नका उत्तर देते हैं-
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन
॥ ३९ ॥
यद्यपि लोभसे भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको और मित्रोंसे विरोध करनेमें पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको जाननेवाले हमलोगोंको इस पापसे हटनेके लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये ॥ ३८-३९ ॥
सम्बन्ध-कुलके नाशसे कौन-कौन-से दोष उत्पन्न होते हैं, इसपर अर्जुन कहते हैं-
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।॥ ४० ॥
कुलके नाशसे सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्मके नाश हो जानेपर सम्पूर्ण कुल् पाप भी बहुत फैल जाता है ॥ ४० ॥
सम्बय-इस प्रकार जब समस्त कुलमें पाप फैल जाता है तब क्या होता है, अर्जुन अब उसे बतलाते हैं—
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४१ ॥
हे कृष्ण ! पापके अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वाष्र्णेय ! स्त्रियोंके दूषित हो जानेपर वर्णसङ्कर उत्पन्न होता है ॥ ४१ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्कर सन्तानके उत्पन्न होनेसे क्या-क्या हानियाँ होती हैं, अर्जुन अब उन्हें बतलाते हैं-
सङ्करो नरकायैव कुलप्घ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४२ ॥
वर्णसङ्कर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं ॥ ४२ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्करकारक दोषोंसे क्या हानि होती है, अब उसे बतलाते हैं-
दोषैरेतैः कुलप्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४३ ॥
इन वर्णसङ्करकारक दोषोंसे कुलघातियोंके सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।॥ ४३ ॥
सामान्या- कुलधाम’ और ‘जातिधर्म’ के नाशसे क्या हानि है; अब इसपर कहते हैं-
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४४ ।।
हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्योंका अनिश्चित कालतक नरकमे वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।॥ ४४ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार स्वजन-वधसे होनेवाले महान् अनर्थका वर्णन करके अब अर्जुन युद्धके उद्योगरूप अपने कृत्यपर शोक प्रकट करते हैं-
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥45॥
हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करनेको तैयार हो गये हैं, जो राज्य पौर सुखके लोभसे स्वजनोंको मारनेके लिये उद्यत हो गये हैं ।॥ ४५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार पश्चात्ताप करनेके बाद अब अर्जुन अपना निर्णय सुनाते हैं-
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाण । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६ ॥
यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवालेको शस्त्र हाथमें लिये हुए धृतराष्ट्रके पुत्र रणमें मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ॥ ४६ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्णसे इतनी बात कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया, इस जिज्ञासापर अर्जुनकी स्थिति बतलाते हुए सञ्जय कहते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४७ ॥
सञ्जय बोले – रणभूमिमें शोकसे उद्विग्न मनवाला अजून इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुषको त्यागकर रथके पिछले भागमें बैठ गया ॥ ४७ ॥
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिपर जो उपर्युक्त पुष्पिका दी गयी है, इसमें श्रीमद्भगवद्गीताका माहात्य और प्रभाव ही प्रकट किया गया है। ‘ॐ तत्सत्’ भगवान्के पवित्र नाम हैं (१७।२३), स्वयं श्रीभगवान्के द्वारा गायी जानेके कारण इसका नाम ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है, इसमें उपनिषदोंका सारतत्व संगृहीत है और यह स्वयं भी उपनिषद् है, इससे इसको ‘उपनिषद्’ कहा गया है, निर्गुण-निराकार परमात्माके परम तत्त्वका साक्षात्कार करानेवाली होनेके कारण इसका नाम ‘ब्रह्मविद्या’ है और जिस कर्मयोगका योगके नामसे वर्णन हुआ है, उस निष्कामभावपूर्ण कर्मयोगका तत्त्व बतलानेवाली होनेसे इसका नाम ‘योगशास्त्र’ है। यह साक्षात् परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण और भक्तवर अर्जुनका संवाद है और इसके प्रत्येक अध्यायमें परमात्माको प्राप्त करानेवाले योगका वर्णन है, इसीसे इसके लिये
‘श्रीकृष्णार्जुनसंवादे…..योगो नाम’ कहा गया है।
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दूसरा अध्याय
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सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १ ॥
सञ्जय बोले- उस प्रकार करुणासे व्याप्त और आँसुओंसे पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तुझे इस असमयमें यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ ?
योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित है, न स्वर्गको देनेवाला है और न कीर्तिको
करनेवाला ही है ॥ २ ॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ ३ ॥
इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्याग कर युद्धके लिये खड़ा हो जा ॥ ३ ॥
सम्बन्ध – भगवान्के इस प्रकार कहनेपर गुरुजनोंके साथ किये जानेवाले युद्धको अनुचित सिद्ध करते हुए दो श्लोकोंमें अर्जुन अपना निश्चय प्रकट करते हैं-
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
अर्जुन बोले- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमिमें किस प्रकार बाणोंसे भीष्मपितामह और द्रोणाचार्यके विरुद्ध लड्रॅगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥ ४ ॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥
इसलिये इन महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर मैं इस लोकमें भिक्षाका अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ। क्योंकि गुरुजनोंको मारकर भी इस लोकमें रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगोंको ही तो भोगूँगा ॥ ५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को संतोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गई। तब वह फिर कहने लगे।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। याचेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना – इन दोनोंमेंसे कौन-स श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे । और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्रके पुत्र हमारे मुकाबलेमे खड़े हैं।
॥ ६ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्तव्यका निर्णय करनेमें अपनी असमर्थता प्रकट करनेके बाद अब अर्जुन भगवान्की शरण ग्रहण करके अपना निश्चित कर्तव्य बतलानेके लिये उनसे प्रार्थना करते हैं-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥
इसलिये कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; हुआ क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ॥ ७ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार शिक्षा देनेके लिये भगवान्से प्रार्थना करके अब अर्जुन उस प्रार्थनाका हेतु बतलाते हुए अपने विचारोंको प्रकटकरते हैं-
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥
क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्यको और देवताओंके स्वामीपनेको प्राप्त होकर भी मैं उस उपायको नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियोंके सुखानेवाले शोकको दूर कर सकें ॥ ८ ॥
सम्बन्ध -इसके बाद अर्जुनने क्या किया, यह बतलाया जाता है-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥
सञ्जय बोले- हे राजन् ! निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान्से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ॥ ९ ॥
सामान्य-इस प्रकार अर्जुनके चुप हो जानेपर भगवान् श्रीकृष्णने क्या किया, इस जिज्ञासापर सञ्जय कहते हैं-
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए-से यह वचन बोले ॥ १० ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त प्रकारसे चिन्तामग्न अर्जुनने जब भगवान्के शरण होकर अपने महान् शोककी निवृत्तिका उपाय पूछा और यह कहा कि इस लोक और परलोकका राज्यसुख इस शोककी निवृत्तिका उपाय नहीं है, तब अर्जुनको अधिकारी समझकर उसके शोक और मोहको सदाके लिये नष्ट करनेके उद्देश्यसे भगवान् पहले नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनपूर्वक सांख्ययोगकी दृष्टिसे भी युद्ध करना कर्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्यनिष्ठाका वर्णन करते हैं-
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके से वचनोंको कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ॥ ११ ॥
सम्बन्ध-
पूर्वलोकयाने असे यह बात कही कि जिन भीषादि खजनोंके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके कभी तक करना किस कारणसे उचित नहीं है। अतः भगवान् आमाकी नित्यताका प्रतिपादन करके आमदृटिसे उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ।।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग न थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥ १२ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन करके अब उसकी निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए आत्माके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही
अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारता प्रतिपादन करके उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा नित्य और निर्विकार हो तो भी बन्धु-बान्धवादिके साथ होनेवाले संयोग-वियोगादिसे सुख-दुःखादिका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, अतएव शोक हुए बिना कैसे रह सकता है ? इसपर भगवान् सब प्रकारके संयोग-वियोगादिको अनित्य बतलाकर उनको सहन करनेकी आज्ञा देते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ॥ १४ ॥
सम्बन्ध – इन सबको सहन करनेसे
क्या लाभ होगा ? इस जिज्ञासापर कहते हैं-
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है ॥ १५ ॥
O best of men, whom these things do not disturb? He who is steadfast in equal pain and pleasure is fit for immortality. 15 ॥
सरम्बाय-बारहवें और तेरहवें श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन किया तथा चौदहवें श्लोकमें इन्द्रियोंके साथ विषयोंके संयोगोंको अनित्य बतलाया, किंतु आत्मा क्यों नित्य हैं और ये संयोग क्यों अनित्य हैं ? इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया, अतएव इस श्लोकमें भगवान् नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनकी रीति बतलानेके लिये दोनोंके लक्षण बतलाते हैं
• दूसरा अध्याय ७१
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
nasato vidyate bhavo nabhavo vidyate satah ubhayorapi drushto̕ntastvanayostattvadarshibhih . 16 .
असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत्का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है ॥ १६ ॥
There is no existence of the unreal and no non-existence of the real. Those who see the Absolute Truth have seen the difference between the two. 16 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें जिस ‘सत्’ तत्त्वके लिये यह कहा गया है कि ‘उसका अभाव नहीं है’, वह ‘सत्’ तत्त्व क्या है- इस जिज्ञासापर कहते हैं-
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
avinashi tu tadviddhi yen sarvamidam tatam . vinashamavyayasyasya na kaschitkartumarhati . 17 .
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्-दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ १७ ॥
But know that which is indestructible, by which all this is pervaded. No one can destroy this inexhaustible Supreme Being. 17 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार ‘सत्’ तत्त्वकी व्याख्या हो जानेके अनन्तर पूर्वोक्त ‘असत्’ वस्तु क्या है, इस जिज्ञासापर कहते हैं—
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥
Antavant ime dehaa nityasyoktah shareerinah . anashino̕prameyasya tasmadyudhyasva bharat . 18 .
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे है।
गये इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ॥ १८ ॥
These bodies are finite, and are said to be embodied in the eternal. O descendant of Bharata, fight against the indestructible and immeasurable Lord. 18 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन करके अर्जुनको युद्धके लिये आज्ञा दी, किंतु अर्जुनने जो यह बात कही थी कि ‘मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमकर होगा’ उसका स्पष्ट समाधान नहीं किया। अतः अगले श्लोकोंमें ‘आत्माको मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं-
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥*
ya enam vetti hantaram yaschainam manyate hatam . ubhou tau na vijanito nayam hanti na hanyate . 19 .
जो इस आत्माको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है ॥ १९ ॥
Whoever knows him to be a murderer and whoever thinks he is killed He who does not recognize both of them neither kills nor is killed. 19 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें यह कहा कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसपर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसमें क्या कारण है ? इसके उत्तरमें भगवान् आत्मामें सब प्रकारके विकारोंका अभाव बतलाते हुए उसके स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥
Na jayate mriyate va kadachinnayam bhutva bhavita va na bhuyah . ajo nityah shashvato̕yam purano na hanyate hanyamane sharire . 20 .
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ॥ २० ॥
He is never born or dies, nor has He ever been, nor will He ever be again. This Supreme Being is unborn, eternal, everlasting and ancient. When the body is killed, it is not killed. 20 ॥
सम्बन्ध-उऔसवे श्लोकये भगवान्ने यह बात कही कि आत्या न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है। उसके अनुसार बीसवें श्लोकमें उसे विकारहित बतलाकर इस बातका प्रतिपादन किया कि वह क्यों नहीं मारा जाता। अब अगले श्लोकमें यह बतलाते हैं कि वह किसीको मारता क्यों नहीं ? –
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
Vedavinashinam nityam ya enamajamavyayam . katham sa purushah parth kam ghatayati hanti kam . 21 .
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्माको नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ॥ २१ ॥
He who knows this unborn and inexhaustible Veda is eternally indestructible. How, O son of Pṛthā, does that person kill whom? Whom does he kill? 21 ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह शङ्का होती है कि आत्मा नित्य और अविनाशी है—उसका कभी नाश नहीं हो सकता, अतः उसके लिये शोक करना नहीं बन सकता और शरीर नाशवान् है – उसका नाश होना अवश्यम्भावी है, अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता – यह सर्वथा ठीक है। किंतु आत्माका जो एक शरीरसे सम्बन्ध छूटकर दूसरे शरीरसे सम्बन्ध होता है, उसमें उसे अत्यन्त कष्ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है? इसपर कहते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥
Vasansi jirnani yatha vihay navani grunati naro̕parani . tatha sharirani vihay jirnanyanyani sanyati navani dehi . 22 .
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ॥ २२ ॥
Just as a man puts off his old clothes and puts on new ones, Similarly, the embodied soul gives up his old body and assumes new ones. 22 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार एक शरीरसे दूसरे शरीरके प्राप्त होनेमें शोक करना अनुचित सिद्ध करके, अब भगवान् आत्माका स्वरूप दुर्विज्ञेय होनेके कारण पुनः तीन श्लोकोंद्वारा प्रकारान्तरसे उसकी नित्यता, निराकारता और निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए उसके विनाशकी
आशङ्कासे शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
Nainam chhindanti shastrani nainam dahati pavakah . na chainam cledayantyapo na shoshayati marutah . 23 . आत्याको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।। २३ ।।
Weapons cannot cut Him, nor can fire burn Him. It is not wetted by water nor dried by the wind 23 ॥
अच्छेद्यो ऽयमदाह्यो ऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
achedyo ̕yamadahyo ̕yamakledyo̕shoshya eva ch .
nityah sarvagatah sthanurachalo̕yam sanatanah . 24 .
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ॥ २४ ॥
This body can be cut, burned, washed or dried.
This Supreme Being is eternal omnipresent stable immovable 24 ॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्ते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥
Avyakto̕yamachintyo̕yamvikaryo̕yamuchate .
tasmadevam viditvainam nanushochitumarhasi . 25 .
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन ! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे जानकर तू शोक करनेके योग्य नहीं है
अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ॥ २५ ॥
This is called the unmanifest, the unthinkable, the incorruptible.
Therefore, knowing this, you should not lament. 25 ॥
सम्बन्ध—उपर्युक्त श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माको अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया: अब दो श्लोकोंद्वारा आत्माको औपचारिकरूपसे जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है-
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
Ath chainam nityajatam nityam va manyase mrutam .
Tathapi tvam mahabaho naivam shochitumarhasi . 26 .
किंतु यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २६ ॥
And yet you think that He is eternally born or eternally dead.
Yet, O mighty-armed one, you should not lament in this way. 26 ॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥
Jatasya hi dhruvo mrutyurdhruvam janm mrutasya ch .
Tasmadapariharye̕rthe na tvam shochitumarhasi . 27 .
क्योंकि इस मान्यताके अनुसार जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २७ ॥
Death is certain for one who is born, and birth is certain for one who is dead.
Therefore, you should not lament for something that is inevitable. 27 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंद्वारा आत्माको नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, उन दोनोंके से ही आत्माके लिये शोक करना नहीं बनता – यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोकमें यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियोंके शरीरोंको उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता –
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥
Avyaktaadini bhutani vyaktamadhyani bharat . avyaktanidhananyev tatra ka paridevana . 28 .
अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है ? ॥ २८ ॥
Arjuna! All beings were invisible before birth and will become invisible after death too; they are visible only in between; then what is there to mourn in such a situation? ॥28॥
सम्बन्ध- आत्मतत्त्व अत्यन्त दुबर्बोध होनेके कारण उसे समझानेके लिये भगवान्ने उपर्युक्त श्लोकोंद्वारा भिन्न-भिन्न प्रकारसे उसके स्वरूपका वर्णन किया: अब अगले श्लोकमें उस आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका निरूपण करते हैं-
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥*
Aashcharyavatpashyati kaschidenamaascharyavadvadati tathaiv chanyah . Aashcharyavachainamanyah shrunoti shrutvapyenam ved na chaiv kaschit . 29 .
कोई एक महापुरुष ही इस आत्माको आश्चर्यकी भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्वका आश्चर्यकी भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्यकी भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ।। २९॥
Only one great person sees this soul as a wonder and similarly, only another great person describes its essence as a wonder and only another authoritative person hears about it as a wonder and some people do not know it even after hearing it. .२९.
सम्बन्ध-इस प्रकार आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका प्रतिपादन करके अब, ‘आत्मा नित्य ही अवध्य है; अतः किसी भी प्राणीके लिये शोक करना उचित नहीं है’ – यह बतलाते हुए भगवान् सांख्ययोगके प्रकरणका उपसंहार करते हैं-
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥
Dehi nityamavadhyo̕yam dehe sarvasya bharat . Tasmatsarvani bhutani na tvam shochitumarhasi . 30 .
हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीरोंमें सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ ३० ॥
Hey Arjun! This soul is always present in everyone’s bodies. For this reason you are not worthy of mourning for all living beings. 30 ॥
सम्बन्ध-यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके अनुसार अनेक युक्तियोंद्वारा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सम, निर्विकार और अकर्ता आत्माके एकत्व, नित्यत्व, अविनाशित्व आदिका प्रतिपादन करके तथा शरीरोंको विनाशशील बतलाकर आत्माके या शरीरोंके लिये अथवा शरीर और आत्माके वियोगके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया। साथ ही प्रसङ्गवश आत्माको जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी शोक
करनेके अनौचित्यका प्रतिपादन किया और अर्जुनको युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी। अब सात श्लोकोंद्वारा क्षात्रधर्मके अनुसार शोक करना अनुचित सिद्ध करते हुए अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
Relationship – Even according to Sankhyayoga, God proved it inappropriate to mourn for the soul or the bodies or for the separation of the body and the soul by propounding the oneness, eternality, indestructibility etc. of the eternal, pure, Buddha, equal, disorderless and non-doing soul and by declaring the bodies to be perishable through many strategies. And also, incidentally, there is sorrow for considering the soul to be born and dying. Propounded the impropriety of doing so and ordered Arjun to fight. Now, through seven verses, Arjuna is encouraged for war by proving that it is inappropriate to mourn as per Kshatradharma –
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
Svadharmamapi chavekshya na vikampitumarhasi . Dharmyaddhi yuddhachreyo̕nyatkshatriyasya na vidyate . 31 .
तथा अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेयोग्य नहीं है यानी तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ॥ ३१॥
And even after looking at your Dharma, you are not worthy of being fearful, that is, you should not be afraid; because for a Kshatriya there is no other welfare duty greater than a Dharma-based war. ॥ 31॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
Yadracchhaya chopapannam svargadvarampavrutam . Sukhinah kshatriyah parth labhante yuddhmidrsham . 32 .
हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं ॥ ३२ ॥
O Partha! Only the fortunate Kshatriyas get to experience this type of war which is like the gates of heaven which are automatically attained and open. ॥ 32॥
सम्बन्ध – इस प्रकार धर्ममय युद्ध करनेमें लाभ दिखलानेके बाद अब उसे न करनेमें हानि दिखलाते हुए भगवान् अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
ath chettvamimam dharmya sangramam na karishyasi . tatah svadharm kirti ch hitva papamvapsyasi . 33 .
किंतु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्धको नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा ॥ ३३ ॥
But if you do not fight this righteous war, you will lose your religious principles and glory and will commit sin. ॥ 33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। ३४ ॥
Akirtim chapi bhutani kathayishyanti te̕vyayam .
Sambhavitasya chakirtirmaranadatirichyate .. 34 .
तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्तिका भी कथन करेंगे और माननीय पुरुषके लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है ॥ ३४ ॥
People will tell you about your infamous deeds, which are inexhaustible.
And the fame of one who is respected is more precious than death. 34 ॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
Bhayadranaduparatam mansyante tvaam maharathah . Yesham ch tvam bahumato bhutva yasyasi laghavam . 35 .
और जिनकी दृष्टिमें तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुताको प्राप्त होगा, वे महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे ॥ ३५ ॥
And those great warriors in whose eyes you were once held in high esteem, but now you will be treated as insignificant, will think that you have withdrawn from the battle out of fear. ॥ 35॥
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
Avachyavadanshch bahun vadishyanti tavahitah . Nindantastav samarthyam tato duhkhataram nu kim . 36 .
तेरे वैरीलोग तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुःख और क्या होगा ? ॥ ३६ ॥
Your enemies will criticise your capabilities and say many unspeakable words to you; what could be more painful than that? ॥36॥
Your followers will speak many unspeakable words What could be more painful than blaming your power? 36 ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त बहुत-से हेतुओंको दिखलाकर युद्ध न करनेमें अनेक प्रकारकी हानियोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् युद्ध करनेमें दोनों तरहसे लाभ दिखलाते हुए अर्जुनको युद्धके लिये तैयार होनेकी आज्ञा देते हैं-
Relation-After showing many of the above reasons and describing the various types of losses in not fighting the war, now the Lord shows the benefits of fighting the war in both the ways and orders Arjun to get ready for the war-
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
hato va prapsyasi svargam jitva va bhokshyase mahim . tasmaduttishth kaunteya yuddhay krutanischayah . 37 .
या तो तू युद्धमेंमारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ॥ ३७ ॥
Either you will be killed in the war and attain heaven or you will win the battle and enjoy the kingdom of the earth. Therefore, O Arjuna, stand up determined for the war. ॥37॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त श्लोकमें भगवान्ने युद्धका फल राज्यसुख या स्वर्गकी प्राप्तितक बतलाया; किंतु अर्जुनने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, मैं तो त्रिलोकीके राज्यके लिये भी अपने कुलका नाश नहीं करना चाहता। अतः जिसे राज्यसुख और स्वर्गकी इच्छा न हो उसको किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्लोकमें बतलायी जाती है-
Relation- In the above verse, God has told that the result of war is attainment of royal pleasures or heaven; but Arjun had already said that forget about the kingdom of this world, I do not want to destroy my clan even for the kingdom of three worlds. Therefore, how should a person who does not desire royal pleasures and heaven fight the war, this thing is told in the next verse-
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
Sukhduhkhe same krutva labhalabhou jayaajayo .
Tato yuddhay yujyasva naivam papamvapsyasi . 38 .
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा ॥ ३८ ॥
Considering victory and defeat, gain and loss, pleasure and pain as the same, then get ready for the battle; by fighting in this manner you will not incur any sin. ॥38॥
सम्बन्ध – यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके सिद्धान्तसे तथा क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्धका औचित्य सिद्ध करके अर्जुनको समतापूर्वक युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी; अब कर्मयोगके सिद्धान्तसे युद्धका औचित्य बतलानेके लिये कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करते हैं –
Relationship – Even after proving the justification of war from the principle of Sankhyayoga and from the point of view of Kshatra Dharma, God ordered Arjun to fight the war equally; Now, to explain the justification of war from the principle of Karmayoga, let us introduce the description of Karmayoga –
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
Esha te̕bhihita sankhye buddhiryoge tvimam shrunu .
Buddhya yukto yaya parth karmabandham prahasyasi .39.
हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन – जिस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मोंके बन्धनको भलीभाँति त्याग देगा यानी सर्वथा नष्ट कर डालेगा ॥ ३९ ॥
Hey Parth! This wisdom was said for you about Gyan Yoga and now you listen to it about Karma Yoga – with the wisdom you have acquired, you will leave the bondage of karma completely, that is, you will completely destroy it. 39॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करके अब उसका रहस्यपूर्ण महत्त्व बतलाते हैं-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
Nehabhikramanasho̕sti pratyavayo na vidyate . Svalpamapyasya dharmasya trayate mahato bhayat . 40 .
इस कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी
नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है ॥ ४० ॥
In this Karmayoga, there is no destruction of the beginning i.e. the seed and on the contrary there is no defect in the result.
It is not, but even a little practice of this religion in the form of Karmayoga protects one from the great fear of birth and death. 40 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगका महत्व बतलाकर अब उसके आचरणकी विधि बतलानेके लिये पहले उस कर्मयोगमें परम आवश्यक जो सिद्ध कर्मयोगीकी निश्चयात्मिका स्थायी समबुद्धि है, उसका और कर्मयोगमें बाधक जो सकाम मनुष्योंकी भिन्न-भित्र बुद्धियाँ हैं, उनका भेद बतलाते हैं-
Relationship – Having explained the importance of Karmayoga in this way, now to explain the method of its conduct, let us first explain the difference between the determined and permanent equanimity of the determined soul of the accomplished Karmayoga, which is most essential in that Karmayoga, and the different intellects of successful people which hinder Karmayoga –
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥
vyavasayatmika buddhirekeh kurunandan . bahushakha hyanantaasch buddhayo̕vyavasayinam . 41 .
हे अर्जुन ! इस कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं ।॥ ४१ ॥
Arjun! In this Karmayoga, there is only one determined intellect; But the intellects of indecisive, fruitless people with unstable thoughts are certainly very diverse and infinite. 41 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगीके लिये अवश्य धारण करनेयोग्य निश्चयात्मिका बुद्धिका और त्याग करनेयोग्य सकाम मनुष्योंकी बुद्धियोंका स्वरूप बतलाकर अब तीन श्लोकोंमें सकामभावको त्याज्य बतलानेके लिये सकाम मनुष्योंके स्वभाव, सिद्धान्त और आचार-व्यवहारका वर्णन करते हैं-
Relationship – In this way, after describing the nature of the determined intellect which must be possessed by the Karmayogi and the intellect of the successful human beings which must be sacrificed, now in three verses, we describe the nature, principles and conduct of the successful human beings in order to show that the virtuous feeling can be sacrificed –
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।॥ ४२ ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
yamimam puspitam vacham pravadantyavipaschitah .
vedavadaratah parth nanyadastiti vadinah .. 42 .
kamatmanah svargapara janmakarmfalpradam .
kriyavisheshabahulam bhogaishvaryagatim prati . 43 .
bhogaishvaryaprasaktanam tayapahrutachetasam .
vyavasayatmika buddhih samadhau na vidhiyate . 44 .
हे अर्जुन ! जो भोगोंमें तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफलके प्रशंसक वेदवाक्योंमें प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्गसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है-ऐसा कहनेवाले हैं- वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणीको कहा करते हैं जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है, उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषोंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ॥ ४२-४३-४४ ॥
O Arjuna! Those who are absorbed in pleasures, those who are admirers of the fruits of actions, who love the words of the Vedas, who say in their mind that heaven is the only thing to be attained and that there is nothing better than heaven, those unwise people speak such flowery or pretentious speech which gives the fruit of actions in the form of birth and describes many different types of activities for the attainment of pleasures and prosperity, whose mind has been taken away by that speech, who are extremely attached to pleasures and prosperity, such men do not have a mind that has faith in God. ॥ 42-43-44 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त सकाम मनुष्योंमें निश्चयात्मिका बुद्धिके न होनेकी बात कहकर अब कर्मयोगका उपदेश देनेके उद्देश्यसे पहले भगवान् अर्जुनको उपर्युक्त भोग और ऐश्वर्यमें आसक्तिसे रहित होकर समभावसे सम्पन्न होनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Thus, after talking about the absence of determined mind among successful people who are attached to enjoyment and opulence, now before giving the advice of Karma Yoga, Lord Arjuna is asked to be devoid of attachment to the above mentioned enjoyment and opulence and become full of equanimity –
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
Traigunyavishaya veda nistraigunyo bhavarjun . Nirdvandvo nityasattvastho niryogakshem aatmavan . 45 .
हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकारसे तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले हैं; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनोंमें आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित योगक्षेमको न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो ।। ४५ ।।
Hey Arjun! The Vedas present all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas as mentioned above; Therefore, you should be free from attachment to those pleasures and their means, free from conflicts of joy and sorrow, not desirous of the yogakshema situated in the Supreme God and have an independent conscience. 45.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनको यह बात कही गयी कि सब वेद तीनों गुणोंके कार्यका प्रतिपादन करनेवाले हैं और तुम तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगोंमें और उनके साधनोंमें आसक्तिरहित हो जाओ । अब उसके फलस्वरूप ब्रह्मज्ञानका महत्त्व बतलाते हैं-
Relationship – In the previous verse, it was said to Arjun that all the Vedas are the ones that expound the functions of the three Gunas and you should become free from attachment to all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas. Now, as a result, let us explain the importance of Brahmagyan-
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
Yavanarth udapane sarvatah samplutodake .
Tavan sarveshu vedeshu brahmanasya vijanatah . 46 .
सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मको तत्त्वसे जाननेवाले ब्राह्मणका समस्त वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।॥ ४६ ॥
Once a reservoir full of all sides is attained, a Brahmin who knows Brahman in essence has as much need in all the Vedas as he has in a small reservoir. 46 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार समबुद्धिरूप कर्मयोगका और उसके फलका महत्त्व बतलाकर अब दो श्लोकोंमें भगवान् कर्मयोगका स्वरूप बतलाते हुए अर्जुनको कर्मयोगमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Having thus explained the importance of Karmayoga in the form of equanimity and its results, now in two verses, God explains the nature of Karmayoga and asks Arjun to perform the work by remaining situated in Karmayoga –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
Karmanyevaadhikaraste maa faleshu kadachan .
Maa karmfalaheturbhurma te sango̕stvakarmani . 47 .
तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ॥ ४७ ॥
You have the right only to perform your duty, never to its fruits. Therefore you should not be the cause of the fruits of your deeds and you should not be attached even to not performing your duty. ॥ 47 ॥
सम्बन्ध- उपर्युक्त श्लोकोंमें यह बात कही गयी कि तुमको न तो कर्मोंके फलका हेतु बनना चाहिये और न कर्म न करने में ही आसक्त होना चाहिये अर्थात् कर्मोंका त्याग भी नहीं करना चाहिये। इसपर यह जिज्ञासा होती है कि तो फिर किस प्रकार कर्म करना चाहिये ?
इसलिये भगवान् कहते हैं-
Relationship – It was said in the above verses that you should neither become an object of fruit of your actions nor should you become attached to not doing any actions, that is, you should not even give up your actions. There is a curiosity that then how should one act?
That’s why God says-
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
yogasthah kuru karmani sangam tyaktva dhananjaya . siddhyasiddhayoh samo bhutva samatvam yog uchyate . 48 .
हे धनञ्जय ! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धिवाला होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्यकर्मोंको कर, समत्व ही योग कहलाता है ॥ ४८ ॥
Hey Dhananjay! By renouncing attachment and being equally intelligent in success and failure, you become established in Yoga and perform your duties; equanimity is called yoga. 48 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगकी प्रक्रिया बतलाकर अब सकामभावकी निन्दा और समभावरूप बुद्धियोगका महत्त्व प्रकट करते हुए भगवान् अर्जुनको उसका आश्रय लेनेके लिये आज्ञा देते हैं-
Relationship – Having explained the process of Karmayoga in this way, now condemning the desire for success and revealing the importance of equanimity in the form of Buddhiyoga, Lord Arjuna is ordered to take refuge in it –
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
Duren hyavaram karm buddhiyogaddhananjaya .
Buddhau sharanamanvich krupanah falahetavah . 49 .
इस समत्वरूप बुद्धियोगसे सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धनञ्जय ! तू समबुद्धिमें ही रक्षाका उपाय ढूँढ़ अर्थात् बुद्धियोगका ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।॥ ४९ ॥
The work accomplished through this equanimous form of intellect is of very low grade. That’s why O Dhananjay! You should seek the means of protection only in having the same intelligence, that is, take shelter of the Yoga of the intellect only; Because those who become breadwinners are very poor. 49॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अर्जुनको समताका आश्रय लेनेकी आज्ञा देकर अब दो श्लोकोंमें उस समतारूप बुद्धिसे युक्त महापुरुषोंकी प्रशंसा करते हुए भगवान् अर्जुनको कर्मयोगका अनुष्ठान करनेकी पुनः आज्ञा देकर उसका फल बतलाते हैं-
Relationship – Having thus ordered Arjun to take shelter of equanimity, now in two verses praising the great men with equanimous intelligence, God again orders Arjun to perform the ritual of Karmayoga and explains its result –
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥
Buddhiyukto jahatih ubhe sukritduskrute .
Tasmadyogay yujyasva yogah karmasu kaushalam . 50 .
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनोंको इसी लोकमें त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योगमें लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मोंमें कुशलता
अर्थात् कर्मबन्धनसे छूटनेका उपाय है ।॥ ५० ॥
An equanimous person gives up both virtue and sin in this world, that is, he becomes free from them. With this you engage in equanimous yoga; This equanimity of yoga is the skill in action.
That is, it is a way to get free from the bondage of karma. 50 ॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
Karmajam buddhiyukta hi falam tyaktva manishinah . Janmabandhavinirmuktah padam gacchhantyanamayam . 51 .
क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो निर्विकार परम पदको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥
Because the wise people with equanimity, by renouncing the fruits arising from their actions, become free from the bondage of birth and attain the supreme position without any vices. 51 ॥
सम्बन्ध – भगवान्ने कर्मयोगके आचरणद्वारा अनामय पदकी प्राप्ति बतलायी; इसपर अर्जुनको यह जिज्ञासा हो सकती है कि अनामय परमपदकी प्राप्ति मुझे कब और कैसे होगी ? इसके लिये भगवान् दो श्लोकोंमें कहते हैं-
Relationship – God explained the attainment of Anamay Padak through the practice of Karmayoga; On this, Arjun may be curious that when and how will I attain the supreme state of Anamaya? For this, God says in two verses-
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
Yada te mohakalilam buddhirvyatitarishyati .
Tada gantaasi nirvedam shrotavyasya shrutasya ch . 52.
जिस कालमें तेरी बुद्धि मोहरूप दलदलको भलीभाँति पार कर जायगी, उस समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ॥ ५२ ॥
When your intellect completely crosses the swamp of delusion, then you will attain detachment from all the pleasures of this world and the next, that you have heard and will hear about. ॥ 52 ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
Shrutivipratipanna te yada sthasyati nischala . Samadhavachala buddhistada yogamvapsyasi . 53 .
भाँति-भाँतिके वचनोंको सुननेसे विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मामें अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा अर्थात् तेरा परमात्मासे नित्य संयो हो जायगा ।। ५३ ।।
When your mind, which has been distracted by listening to different words, becomes unmoving and steady in God, then you will attain Yoga, that is, you will be constantly united with God. 53.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने यह बात कही कि जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदलको सर्वथा पार कर जायगी तथा तुम इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंसे विरक्त हो जाओगे, तुम्हारी बुद्धि परमात्मामें निश्चल ठहर जायगी, तब तुम परमात्माको प्राप्त हो जाओगे। इसपर परमात्माको प्राप्त स्थितप्रज्ञ सिद्धयोगीके लक्षण और आचरण जाननेकी इच्छासे अर्जुन पूछते हैं-
Relationship – In the previous verses, God said that when your intellect will completely cross the swamp of illusion and you will become detached from all the pleasures of this world and the next world, your intellect will remain fixed in God, then you will attain God. On this, Arjun asks, desiring to know the characteristics and conduct of an intelligent Siddha Yogi who has attained the state of God:
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
Arjun uvach
Sthitapragnyasya ka bhasha samadhisthasya keshav . Sthitadhih kim prabhashet kimasit vrajet kim . 54 .
अर्जुन बोले- हे केशव ! समाधिमें स्थित परमात्माको प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुषका
क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चला है ? ॥ ५४ ॥
Arjun said- O Keshav! What are the signs of a man of steady intellect who has attained the Supreme Being in Samadhi? How does that man of steady intellect speak, sit and walk? ॥54॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनने परमात्माको प्राप्त हुए सिद्ध योगीके विषयमें चार बातें पूछी हैं; इन चारों बातोंका उत्तर भगवान्ने अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त दिया है, बीचमें प्रसङ्गवश दूसरी बातें भी कही हैं। इस अगले श्लोकमें अर्जुनके पहले प्रश्नका उत्तर संक्षेपमें देते हैं-
Relation – In the previous verse, Arjuna has asked four questions about a Siddha Yogi who has attained God; God has answered all these four questions till the end of the chapter, and in between he has also said other things as per the context. In this next verse, Arjuna’s first question is answered briefly-
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
Prajahati yada kaman sarvan parth manogatan . Aatmanyevatmana tushtah sthitapragnyastadochyate . 55 .
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे आत्मामें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।॥ ५५ ॥
Sri Bhagavan said- O Arjun! When a man completely abandons all the desires of his mind and remains satisfied with the self, then he is called a person of steady wisdom. ॥55॥
सम्बन्ध–स्थितप्रज्ञके विषयमें अर्जुनने चार बातें पूछी हैं, उनमेंसे पहला प्रश्न इतना व्यापक है कि उसके बादके तीनों प्रश्नोंका उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। इस दृष्टिसे तो अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त उस एक ही प्रश्नका उत्तर है; पर अन्य तीन प्रश्नोंका भेद समझनेके लि ऐसा समझना चाहिये कि अब दो श्लोकोंमें ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर दिया जाता है—
Relation- Arjun has asked four questions about sthitapragy, the first question out of which is so broad that the three questions after it are included in it. From this point of view, till the end of the chapter, there is an answer to that one question only; but to understand the difference between the other three questions, it should be understood that now the answer to the second question ‘how does a sthitapragy speak’ is given in two verses-
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
Duhkheshvanudvignamanah sukheshu vigataspruhah . Vitaragabhayakrodhah sthitadhirmuniruchyate . 56 .
दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता, सुखोंकी प्राप्तिमें जो सर्वथा निःस्पृ है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।। ५६॥
The one who does not get agitated in his mind after receiving sorrows, who is completely disinterested in getting pleasures and whose attachment, fear and anger have been destroyed, such a sage is said to have a stable mind. 56॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।॥ ५७ ॥
Yah sarvatranabhisnehastattatprapya shubhashubham . Nabhinandati na dveshti tasya pragnya pratishthita .. 57 .
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥ ५७ ॥
A man who is devoid of any affection towards anything and on receiving any good or bad thing neither gets pleased nor hates it, his intellect is stable. ॥ 57॥
सम्बन्ध – ‘स्थिरबुद्धिवाला योगी कैसे बोलता है ?’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर समाप्त करके अब भगवान् ‘वह कैसे बैठता है ?’ इस तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियोंका सर्वथा उसके वशमें हो जाना और आसक्तिसे रहित होकर अपने-अपने विषयोंसे उपरत हो जाना ही स्थितप्रज्ञ पुरुषका बैठना है-
Relationship – ‘How does a yogi with stable intellect speak?’ After finishing the answer to this second question, now God asks ‘How does he sit?’ While answering this third question, it is shown that the sitting position of a Sthitapragya Purusha is to be completely under the control of the senses of a Sthitapragya Purusha and to be free from attachment and to be above one’s own objects –
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
Yada sanharate chayam kurmo̕nganiv sarvashah . Indriyanindriyaarthebhyastasya pragnya pratishthita . 58 .
और कछुआ सब ओरसे अपने अङ्गोंको जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये) ॥ ५८ ॥
And just as a tortoise withdraws its limbs from all sides, similarly when a man withdraws his senses from the sense-objects in every way, then his intellect is stable (it should be considered so). ॥ 58॥
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञके बैठनेका प्रकार बतलाकर अब उसमें होनेवाली शङ्काओंका समाधान करनेके लिये अन्य प्रकारसे किये जानेवाले इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा स्थितप्रज्ञके इन्द्रियसंयमकी विलक्षणता दिखलाते हैं-
Relationship – While answering the third question in the previous verse, by telling the type of sitting of the Sthitapragya, now to solve the doubts arising in it, we show the uniqueness of the sense control of the Sthitapragya as compared to the other types of sense control –
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
vishaya vinivartante niraharasya dehinah . rasavarjam raso̕pyasya param drushtva nivartate . 59 .
इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी तो आसक्ति भी परमात्माका साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ॥ ५९ ॥
Even for a person who does not grasp the objects through the senses, only the objects are destroyed, but the attachment residing in them is not destroyed. Even the attachment of this person who is situated in wisdom goes away after realizing God. 59॥
धृतराष्ट्र उवाच
र्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १ ॥
Dharmakshetre kurukshetre samveta yuyutsavah . Maamkah pandavaschaiv kimakurvat sanjaya . 1 .
धृतराष्ट्र बोले- हे सञ्जय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित, युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? ॥ १॥
Dhritarashtra said, “O Sanjaya! What did my and Pandu’s sons, who were eager for war, do when they gathered at the holy land of Kurukshetra?” ॥1॥ध
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
शष्य
सञ्जय बोले- उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकष्ट दोणाचार्यके पास जाकर यह वचन कहा ॥ २ ॥
सम्बन्ध- द्रोणाचार्यके पास जाकर दुर्योधनने जो कुछ कहा, अब उसे बतलाते हैं-
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३ ॥
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये ।। ३ ।।
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाकी व्यूहरचना दिखलाकर अब दुर्योधन तीन श्लोकों द्वारा पाण्डव-सेनाके प्रमुख महारथियोंके नाम बतलाते हैं-
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४ ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्चशैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥५॥
युधाम् ——_–क्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६ ॥
इस सेनामें बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्धमें भीम और अर्जुनके समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मुनष्योंमें श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं ॥ ४-५-६ ॥
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाके प्रधान योद्धाओंके नाम बतलाकर अब दुयोंधन आचार्य द्रोणसे अपनी सेनाके प्रधान योद्धाओंको जान लेनेके लिये अनुरोध करते हैं-
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम । नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते ॥ ७ ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्षमें भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारीके लिये मेरी सेनाके जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ ।। ७ ।।
सम्बन्ध-अब दो श्लोकोने दुयोंधन अपने पक्षके प्रधान वीरोंके नाम बतलाते हुए अन्यान्य वीरोके सहित उनकी प्रशंसा करते हैं
भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ ८ ॥
आप – द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा ॥ ८ ॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।। ९ ।।
और भी मेरे लिये जीवनकी आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित और सब के सब युद्धमें चतुर हैं ।॥ ९ ॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १० ॥
भीष्मपितामहद्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकारसे अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगोंकी यह सेना जीतनेमें सुगम है ॥ १० ॥
सम्बन्य–इस अकार भीष्मद्वारा संरक्षित अपनी सेनाको अजेय बताकर, अब दुर्योधन सब ओरसे भीष्मकी रक्षा करनेके लिये द्रोणाचार्य आदि समस्त महारथियोंसे अनुरोध करते हैं-
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥
इसलिये सब मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसन्देह भीष्मपितामहकी ही सब ओरसे रक्षा करें ॥ ११ ॥
सम्बन्ध – दुर्योधनके द्वारा अपने पक्षके महारथियोंकी विशेषरूपसे पितामह भीष्मकी प्रशंसा किये जानेका वर्णन सुनाकर अब सञ्जय उसके बादकी घटनाओंका वर्णन करते हैं-
तस्य संजनयन् हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥
कौरवोंमें वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्मने उस दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वरसे सिंहकी दहाड़के समान गरजकर शङ्ख बजाया ॥ १२ ॥
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥
इसके पश्चात् शङ्ख और नगारे तथा ढोल, मृदङ्ग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही उठे । उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – धृतराष्ट्रने पूछा था कि युद्धके लिये एकत्र होनेके बाद मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया, इसके उत्तरमें सञ्जयने अबतक धृतराष्ट्रके पक्षवालोंकी बात सुनायी; अब पाण्डवोंने क्या किया, उसे पाँच श्लोकोंमें बतलाते हैं-
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥
इसके अनन्तर सफेद घोड़ोंसे युक्त उत्तम रथमें बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुनने भी अलौकिक शङ्ख बजाये ॥ १४ ॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्डूं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥
श्रीकृष्ण महाराजने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुनने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्र नामक महाशङ्ख बजाया ॥ १५ ॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शङ्ख बजाये ॥ १६ ॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ १७ ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ १८ ॥
श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और इत- अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु – इन सभीने, हे राजन् ! सब ओरसे अलग-अलग शङ्ख बजाये ॥ १७-१८ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके पश्चात् पाण्डव-सेनाके अन्यान्य शूरवीरोंद्वारा सब ओर शङ्ख बजाये जानेकी बात कहकर अब उस शङ्खध्वनिका क्या परिणाम हुआ ? उसे सञ्जय बतलाते हैं-
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९ ॥
और उस भयानक शब्दने आकाश और पृथ्वीको भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रोंके यानी आपके पक्षवालोंके हृदय विदीर्ण कर दिये ॥ १९ ॥
सम्बन्ध-पाण्डवोंकी शङ्खध्वनिसे कौरववीरोंके व्यथित होनेका वर्णन करके, अब चार श्लोकोंमें भगवान् श्रीकृष्णके प्रति कहे हुए अर्जुनके उत्साहपूर्ण वचनोंका वर्णन किया जाता है-
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ २० ॥ हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुनने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको उस शस्त्र चलनेकी तैयारीके समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराजसे यह देखकर, वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ॥ २०-२१ ॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥
और जबतक कि मैं युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओंको भल प्रकार देख लूँ कि इस युद्धरूप व्यापारमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना योग्य है, तबतक उसे खड़ा रखिये ।। २२ ॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥
दुर्बुद्धि दुर्योधनका युद्धमें हित चाहनेवाले जो-जो ये राजालोग इस सेनामें आये हैं, इन युद्ध करनेवालोंको मैं देखूँगा ॥ २३ ॥
सम्बन्ध-अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर भगवान्ने क्या किया ? अब दो श्लोकोंमें सञ्जय उसका वर्णन करते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥ २५ ॥
सञ्जय बोले- हे धृतराष्ट्र ! अर्जुनद्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्रने दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणाचार्यके सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने उत्तम रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्धके लिये जुटे हुए इन कौरवोंको देख ॥ २४-२५ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण———सुनकर अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं–
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान् भ्रातून पुत्रान् पौत्रान् सर्वीस्तथा ॥ २६ ॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
इसके बाद पृथापुत्र अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित ताऊ-चाचोंको, दादों-परदादोंको, गुरुओंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुहृदोंको भी देखा ॥ २६ और २७ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-इस प्रकार सबको देखनेके बाद अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं-
तान् समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ २७ ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओंको देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणासे युक्त होकर शोक करते हुए यह बचन बोले ॥ २७ वेंका उत्तरार्ध और २८ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-बन्धुस्नेहके कारण अर्जुनकी कैसी स्थिति हुई, अब ढाई श्लोकोंमें अर्जुन स्वयं उसका वर्णन करते हैं-
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ २८ ॥ सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥ २९ ॥
अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इस स्वजन समुदायको देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीरमें कम्प एवं होमाञ्च हो रहा है ॥ २८वेंका उत्तरार्ध और २९ ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३० ॥
हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहनेको भी समर्थ नहीं हूँ ॥ ३० ॥
सम्बन्ध—अपनी विषादयुक्त स्थितिका वर्णन करके अब अर्जुन अपने विचारोंके अनुसार युद्धका अनौचित्य सिद्ध करते हैं-
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥
हे केशव ! मैं लक्षणोंको भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्धमें स्वजन-समुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता ॥ ३१ ॥
सम्बन्ध – अर्जुनने यह कहा कि स्वजनोंको मारनेसे किसी प्रकारका भी हित होनेकी सम्भावना नहीं है, अब फिर वे उसीकी पुष्टि करते हैं-
न काले विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥
हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही । हे गोविन्द ! ह ऐसे राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगोंसे और जीवनसे भी क्या लाभ है ? ॥ ३२ ॥
सम्बन्ध – अब अर्जुन स्वजनवधसे मिलनेवाले राज्य-भोगादिको न चाहनेका कारण दिखलाते हैं-
येषामर्थे काङ्क्षित्तं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥
हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको त्यागकर युद्धमें खड़े हैं ॥ ३३ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार युद्धका अनौचित्य दिखलाकर अब अर्जुन युद्धमें मरनेके लिये तैयार होकर आये हुए स्वजन-समुदायमें कौन-कौन है उनका संक्षेप में वर्णन करते हैं?
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।। ३४ ।।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ।॥ ३४ ॥
सम्बन्ध – सेनामें उपस्थित शूरवीरोंके साथ अपना सम्बन्ध बतलाकर अब अर्जुन किसी भी हेतुसे इन्हें मारनेमें अपनी अनिच्छा प्रकट करते हैं-
एतान्न हन्तुमिच्छामि प्घ्नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ ३५ ॥
हे मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वीके लिये तो कहना ही क्या है ? ॥ ३५ ॥
सम्बन्ध-यहाँ यदि यह पूछा जाय कि आप त्रिलोकीके राज्यके लिये भी उनको मारना क्यों नहीं चाहते, तो इसपर अर्जुन अपने सम्बन्धियोंको मारनेमें लाभका अभाव और पापकी सम्भावना बतलाकर अपनी बातको पुष्ट करते हैं-
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियोंको मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ॥ ३६ ॥
सम्बन्ध – स्वजनोंको मारना सब प्रकारसे हानिकारक बतलाकर अब अर्जुन अपना मत प्रकट कर रहे हैं-
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥
अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्बको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ॥ ३७ ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि कुटुम्ब-नाशसे होनेवाला दोष तो दोनोंके लिये समान ही है; फिर यदि इस दोषपर विचार करके दुर्योधनादि युद्धसे नहीं हटते, तब तुम ही इतना विचार क्यों करते हो ? अर्जुन दो श्लोकोंमें इस प्रश्नका उत्तर देते हैं-
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन
॥ ३९ ॥
यद्यपि लोभसे भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको और मित्रोंसे विरोध करनेमें पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको जाननेवाले हमलोगोंको इस पापसे हटनेके लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये ॥ ३८-३९ ॥
सम्बन्ध-कुलके नाशसे कौन-कौन-से दोष उत्पन्न होते हैं, इसपर अर्जुन कहते हैं-
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।॥ ४० ॥
कुलके नाशसे सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्मके नाश हो जानेपर सम्पूर्ण कुल् पाप भी बहुत फैल जाता है ॥ ४० ॥
सम्बय-इस प्रकार जब समस्त कुलमें पाप फैल जाता है तब क्या होता है, अर्जुन अब उसे बतलाते हैं—
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४१ ॥
हे कृष्ण ! पापके अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वाष्र्णेय ! स्त्रियोंके दूषित हो जानेपर वर्णसङ्कर उत्पन्न होता है ॥ ४१ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्कर सन्तानके उत्पन्न होनेसे क्या-क्या हानियाँ होती हैं, अर्जुन अब उन्हें बतलाते हैं-
सङ्करो नरकायैव कुलप्घ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४२ ॥
वर्णसङ्कर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं ॥ ४२ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्करकारक दोषोंसे क्या हानि होती है, अब उसे बतलाते हैं-
दोषैरेतैः कुलप्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४३ ॥
इन वर्णसङ्करकारक दोषोंसे कुलघातियोंके सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।॥ ४३ ॥
सामान्या- कुलधाम’ और ‘जातिधर्म’ के नाशसे क्या हानि है; अब इसपर कहते हैं-
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४४ ।।
हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्योंका अनिश्चित कालतक नरकमे वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।॥ ४४ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार स्वजन-वधसे होनेवाले महान् अनर्थका वर्णन करके अब अर्जुन युद्धके उद्योगरूप अपने कृत्यपर शोक प्रकट करते हैं-
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥45॥
हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करनेको तैयार हो गये हैं, जो राज्य पौर सुखके लोभसे स्वजनोंको मारनेके लिये उद्यत हो गये हैं ।॥ ४५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार पश्चात्ताप करनेके बाद अब अर्जुन अपना निर्णय सुनाते हैं-
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाण । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६ ॥
यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवालेको शस्त्र हाथमें लिये हुए धृतराष्ट्रके पुत्र रणमें मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ॥ ४६ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्णसे इतनी बात कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया, इस जिज्ञासापर अर्जुनकी स्थिति बतलाते हुए सञ्जय कहते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४७ ॥
सञ्जय बोले – रणभूमिमें शोकसे उद्विग्न मनवाला अजून इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुषको त्यागकर रथके पिछले भागमें बैठ गया ॥ ४७ ॥
★★★★★★★
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिपर जो उपर्युक्त पुष्पिका दी गयी है, इसमें श्रीमद्भगवद्गीताका माहात्य और प्रभाव ही प्रकट किया गया है। ‘ॐ तत्सत्’ भगवान्के पवित्र नाम हैं (१७।२३), स्वयं श्रीभगवान्के द्वारा गायी जानेके कारण इसका नाम ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है, इसमें उपनिषदोंका सारतत्व संगृहीत है और यह स्वयं भी उपनिषद् है, इससे इसको ‘उपनिषद्’ कहा गया है, निर्गुण-निराकार परमात्माके परम तत्त्वका साक्षात्कार करानेवाली होनेके कारण इसका नाम ‘ब्रह्मविद्या’ है और जिस कर्मयोगका योगके नामसे वर्णन हुआ है, उस निष्कामभावपूर्ण कर्मयोगका तत्त्व बतलानेवाली होनेसे इसका नाम ‘योगशास्त्र’ है। यह साक्षात् परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण और भक्तवर अर्जुनका संवाद है और इसके प्रत्येक अध्यायमें परमात्माको प्राप्त करानेवाले योगका वर्णन है, इसीसे इसके लिये
‘श्रीकृष्णार्जुनसंवादे…..योगो नाम’ कहा गया है।
★★★★★★★
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दूसरा अध्याय
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सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १ ॥
सञ्जय बोले- उस प्रकार करुणासे व्याप्त और आँसुओंसे पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तुझे इस असमयमें यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ ?
योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित है, न स्वर्गको देनेवाला है और न कीर्तिको
करनेवाला ही है ॥ २ ॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ ३ ॥
इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्याग कर युद्धके लिये खड़ा हो जा ॥ ३ ॥
सम्बन्ध – भगवान्के इस प्रकार कहनेपर गुरुजनोंके साथ किये जानेवाले युद्धको अनुचित सिद्ध करते हुए दो श्लोकोंमें अर्जुन अपना निश्चय प्रकट करते हैं-
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
अर्जुन बोले- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमिमें किस प्रकार बाणोंसे भीष्मपितामह और द्रोणाचार्यके विरुद्ध लड्रॅगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥ ४ ॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥
इसलिये इन महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर मैं इस लोकमें भिक्षाका अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ। क्योंकि गुरुजनोंको मारकर भी इस लोकमें रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगोंको ही तो भोगूँगा ॥ ५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को संतोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गई। तब वह फिर कहने लगे।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। याचेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना – इन दोनोंमेंसे कौन-स श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे । और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्रके पुत्र हमारे मुकाबलेमे खड़े हैं।
॥ ६ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्तव्यका निर्णय करनेमें अपनी असमर्थता प्रकट करनेके बाद अब अर्जुन भगवान्की शरण ग्रहण करके अपना निश्चित कर्तव्य बतलानेके लिये उनसे प्रार्थना करते हैं-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥
इसलिये कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; हुआ क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ॥ ७ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार शिक्षा देनेके लिये भगवान्से प्रार्थना करके अब अर्जुन उस प्रार्थनाका हेतु बतलाते हुए अपने विचारोंको प्रकटकरते हैं-
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥
क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्यको और देवताओंके स्वामीपनेको प्राप्त होकर भी मैं उस उपायको नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियोंके सुखानेवाले शोकको दूर कर सकें ॥ ८ ॥
सम्बन्ध -इसके बाद अर्जुनने क्या किया, यह बतलाया जाता है-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥
सञ्जय बोले- हे राजन् ! निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान्से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ॥ ९ ॥
सामान्य-इस प्रकार अर्जुनके चुप हो जानेपर भगवान् श्रीकृष्णने क्या किया, इस जिज्ञासापर सञ्जय कहते हैं-
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए-से यह वचन बोले ॥ १० ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त प्रकारसे चिन्तामग्न अर्जुनने जब भगवान्के शरण होकर अपने महान् शोककी निवृत्तिका उपाय पूछा और यह कहा कि इस लोक और परलोकका राज्यसुख इस शोककी निवृत्तिका उपाय नहीं है, तब अर्जुनको अधिकारी समझकर उसके शोक और मोहको सदाके लिये नष्ट करनेके उद्देश्यसे भगवान् पहले नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनपूर्वक सांख्ययोगकी दृष्टिसे भी युद्ध करना कर्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्यनिष्ठाका वर्णन करते हैं-
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके से वचनोंको कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ॥ ११ ॥
सम्बन्ध-
पूर्वलोकयाने असे यह बात कही कि जिन भीषादि खजनोंके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके कभी तक करना किस कारणसे उचित नहीं है। अतः भगवान् आमाकी नित्यताका प्रतिपादन करके आमदृटिसे उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ।।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग न थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥ १२ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन करके अब उसकी निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए आत्माके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही
अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारता प्रतिपादन करके उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा नित्य और निर्विकार हो तो भी बन्धु-बान्धवादिके साथ होनेवाले संयोग-वियोगादिसे सुख-दुःखादिका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, अतएव शोक हुए बिना कैसे रह सकता है ? इसपर भगवान् सब प्रकारके संयोग-वियोगादिको अनित्य बतलाकर उनको सहन करनेकी आज्ञा देते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ॥ १४ ॥
सम्बन्ध – इन सबको सहन करनेसे
क्या लाभ होगा ? इस जिज्ञासापर कहते हैं-
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है ॥ १५ ॥
O best of men, whom these things do not disturb? He who is steadfast in equal pain and pleasure is fit for immortality. 15 ॥
सरम्बाय-बारहवें और तेरहवें श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन किया तथा चौदहवें श्लोकमें इन्द्रियोंके साथ विषयोंके संयोगोंको अनित्य बतलाया, किंतु आत्मा क्यों नित्य हैं और ये संयोग क्यों अनित्य हैं ? इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया, अतएव इस श्लोकमें भगवान् नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनकी रीति बतलानेके लिये दोनोंके लक्षण बतलाते हैं
• दूसरा अध्याय ७१
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
nasato vidyate bhavo nabhavo vidyate satah ubhayorapi drushto̕ntastvanayostattvadarshibhih . 16 .
असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत्का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है ॥ १६ ॥
There is no existence of the unreal and no non-existence of the real. Those who see the Absolute Truth have seen the difference between the two. 16 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें जिस ‘सत्’ तत्त्वके लिये यह कहा गया है कि ‘उसका अभाव नहीं है’, वह ‘सत्’ तत्त्व क्या है- इस जिज्ञासापर कहते हैं-
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
avinashi tu tadviddhi yen sarvamidam tatam . vinashamavyayasyasya na kaschitkartumarhati . 17 .
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्-दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ १७ ॥
But know that which is indestructible, by which all this is pervaded. No one can destroy this inexhaustible Supreme Being. 17 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार ‘सत्’ तत्त्वकी व्याख्या हो जानेके अनन्तर पूर्वोक्त ‘असत्’ वस्तु क्या है, इस जिज्ञासापर कहते हैं—
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥
Antavant ime dehaa nityasyoktah shareerinah . anashino̕prameyasya tasmadyudhyasva bharat . 18 .
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे है।
गये इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ॥ १८ ॥
These bodies are finite, and are said to be embodied in the eternal. O descendant of Bharata, fight against the indestructible and immeasurable Lord. 18 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन करके अर्जुनको युद्धके लिये आज्ञा दी, किंतु अर्जुनने जो यह बात कही थी कि ‘मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमकर होगा’ उसका स्पष्ट समाधान नहीं किया। अतः अगले श्लोकोंमें ‘आत्माको मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं-
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥*
ya enam vetti hantaram yaschainam manyate hatam . ubhou tau na vijanito nayam hanti na hanyate . 19 .
जो इस आत्माको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है ॥ १९ ॥
Whoever knows him to be a murderer and whoever thinks he is killed He who does not recognize both of them neither kills nor is killed. 19 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें यह कहा कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसपर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसमें क्या कारण है ? इसके उत्तरमें भगवान् आत्मामें सब प्रकारके विकारोंका अभाव बतलाते हुए उसके स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥
Na jayate mriyate va kadachinnayam bhutva bhavita va na bhuyah . ajo nityah shashvato̕yam purano na hanyate hanyamane sharire . 20 .
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ॥ २० ॥
He is never born or dies, nor has He ever been, nor will He ever be again. This Supreme Being is unborn, eternal, everlasting and ancient. When the body is killed, it is not killed. 20 ॥
सम्बन्ध-उऔसवे श्लोकये भगवान्ने यह बात कही कि आत्या न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है। उसके अनुसार बीसवें श्लोकमें उसे विकारहित बतलाकर इस बातका प्रतिपादन किया कि वह क्यों नहीं मारा जाता। अब अगले श्लोकमें यह बतलाते हैं कि वह किसीको मारता क्यों नहीं ? –
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
Vedavinashinam nityam ya enamajamavyayam . katham sa purushah parth kam ghatayati hanti kam . 21 .
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्माको नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ॥ २१ ॥
He who knows this unborn and inexhaustible Veda is eternally indestructible. How, O son of Pṛthā, does that person kill whom? Whom does he kill? 21 ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह शङ्का होती है कि आत्मा नित्य और अविनाशी है—उसका कभी नाश नहीं हो सकता, अतः उसके लिये शोक करना नहीं बन सकता और शरीर नाशवान् है – उसका नाश होना अवश्यम्भावी है, अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता – यह सर्वथा ठीक है। किंतु आत्माका जो एक शरीरसे सम्बन्ध छूटकर दूसरे शरीरसे सम्बन्ध होता है, उसमें उसे अत्यन्त कष्ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है? इसपर कहते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥
Vasansi jirnani yatha vihay navani grunati naro̕parani . tatha sharirani vihay jirnanyanyani sanyati navani dehi . 22 .
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ॥ २२ ॥
Just as a man puts off his old clothes and puts on new ones, Similarly, the embodied soul gives up his old body and assumes new ones. 22 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार एक शरीरसे दूसरे शरीरके प्राप्त होनेमें शोक करना अनुचित सिद्ध करके, अब भगवान् आत्माका स्वरूप दुर्विज्ञेय होनेके कारण पुनः तीन श्लोकोंद्वारा प्रकारान्तरसे उसकी नित्यता, निराकारता और निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए उसके विनाशकी
आशङ्कासे शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
Nainam chhindanti shastrani nainam dahati pavakah . na chainam cledayantyapo na shoshayati marutah . 23 . आत्याको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।। २३ ।।
Weapons cannot cut Him, nor can fire burn Him. It is not wetted by water nor dried by the wind 23 ॥
अच्छेद्यो ऽयमदाह्यो ऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
achedyo ̕yamadahyo ̕yamakledyo̕shoshya eva ch .
nityah sarvagatah sthanurachalo̕yam sanatanah . 24 .
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ॥ २४ ॥
This body can be cut, burned, washed or dried.
This Supreme Being is eternal omnipresent stable immovable 24 ॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्ते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥
Avyakto̕yamachintyo̕yamvikaryo̕yamuchate .
tasmadevam viditvainam nanushochitumarhasi . 25 .
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन ! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे जानकर तू शोक करनेके योग्य नहीं है
अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ॥ २५ ॥
This is called the unmanifest, the unthinkable, the incorruptible.
Therefore, knowing this, you should not lament. 25 ॥
सम्बन्ध—उपर्युक्त श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माको अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया: अब दो श्लोकोंद्वारा आत्माको औपचारिकरूपसे जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है-
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
Ath chainam nityajatam nityam va manyase mrutam .
Tathapi tvam mahabaho naivam shochitumarhasi . 26 .
किंतु यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २६ ॥
And yet you think that He is eternally born or eternally dead.
Yet, O mighty-armed one, you should not lament in this way. 26 ॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥
Jatasya hi dhruvo mrutyurdhruvam janm mrutasya ch .
Tasmadapariharye̕rthe na tvam shochitumarhasi . 27 .
क्योंकि इस मान्यताके अनुसार जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २७ ॥
Death is certain for one who is born, and birth is certain for one who is dead.
Therefore, you should not lament for something that is inevitable. 27 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंद्वारा आत्माको नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, उन दोनोंके से ही आत्माके लिये शोक करना नहीं बनता – यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोकमें यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियोंके शरीरोंको उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता –
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥
Avyaktaadini bhutani vyaktamadhyani bharat . avyaktanidhananyev tatra ka paridevana . 28 .
अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है ? ॥ २८ ॥
Arjuna! All beings were invisible before birth and will become invisible after death too; they are visible only in between; then what is there to mourn in such a situation? ॥28॥
सम्बन्ध- आत्मतत्त्व अत्यन्त दुबर्बोध होनेके कारण उसे समझानेके लिये भगवान्ने उपर्युक्त श्लोकोंद्वारा भिन्न-भिन्न प्रकारसे उसके स्वरूपका वर्णन किया: अब अगले श्लोकमें उस आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका निरूपण करते हैं-
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥*
Aashcharyavatpashyati kaschidenamaascharyavadvadati tathaiv chanyah . Aashcharyavachainamanyah shrunoti shrutvapyenam ved na chaiv kaschit . 29 .
कोई एक महापुरुष ही इस आत्माको आश्चर्यकी भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्वका आश्चर्यकी भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्यकी भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ।। २९॥
Only one great person sees this soul as a wonder and similarly, only another great person describes its essence as a wonder and only another authoritative person hears about it as a wonder and some people do not know it even after hearing it. .२९.
सम्बन्ध-इस प्रकार आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका प्रतिपादन करके अब, ‘आत्मा नित्य ही अवध्य है; अतः किसी भी प्राणीके लिये शोक करना उचित नहीं है’ – यह बतलाते हुए भगवान् सांख्ययोगके प्रकरणका उपसंहार करते हैं-
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥
Dehi nityamavadhyo̕yam dehe sarvasya bharat . Tasmatsarvani bhutani na tvam shochitumarhasi . 30 .
हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीरोंमें सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ ३० ॥
Hey Arjun! This soul is always present in everyone’s bodies. For this reason you are not worthy of mourning for all living beings. 30 ॥
सम्बन्ध-यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके अनुसार अनेक युक्तियोंद्वारा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सम, निर्विकार और अकर्ता आत्माके एकत्व, नित्यत्व, अविनाशित्व आदिका प्रतिपादन करके तथा शरीरोंको विनाशशील बतलाकर आत्माके या शरीरोंके लिये अथवा शरीर और आत्माके वियोगके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया। साथ ही प्रसङ्गवश आत्माको जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी शोक
करनेके अनौचित्यका प्रतिपादन किया और अर्जुनको युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी। अब सात श्लोकोंद्वारा क्षात्रधर्मके अनुसार शोक करना अनुचित सिद्ध करते हुए अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
Relationship – Even according to Sankhyayoga, God proved it inappropriate to mourn for the soul or the bodies or for the separation of the body and the soul by propounding the oneness, eternality, indestructibility etc. of the eternal, pure, Buddha, equal, disorderless and non-doing soul and by declaring the bodies to be perishable through many strategies. And also, incidentally, there is sorrow for considering the soul to be born and dying. Propounded the impropriety of doing so and ordered Arjun to fight. Now, through seven verses, Arjuna is encouraged for war by proving that it is inappropriate to mourn as per Kshatradharma –
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
Svadharmamapi chavekshya na vikampitumarhasi . Dharmyaddhi yuddhachreyo̕nyatkshatriyasya na vidyate . 31 .
तथा अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेयोग्य नहीं है यानी तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ॥ ३१॥
And even after looking at your Dharma, you are not worthy of being fearful, that is, you should not be afraid; because for a Kshatriya there is no other welfare duty greater than a Dharma-based war. ॥ 31॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
Yadracchhaya chopapannam svargadvarampavrutam . Sukhinah kshatriyah parth labhante yuddhmidrsham . 32 .
हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं ॥ ३२ ॥
O Partha! Only the fortunate Kshatriyas get to experience this type of war which is like the gates of heaven which are automatically attained and open. ॥ 32॥
सम्बन्ध – इस प्रकार धर्ममय युद्ध करनेमें लाभ दिखलानेके बाद अब उसे न करनेमें हानि दिखलाते हुए भगवान् अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
ath chettvamimam dharmya sangramam na karishyasi . tatah svadharm kirti ch hitva papamvapsyasi . 33 .
किंतु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्धको नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा ॥ ३३ ॥
But if you do not fight this righteous war, you will lose your religious principles and glory and will commit sin. ॥ 33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। ३४ ॥
Akirtim chapi bhutani kathayishyanti te̕vyayam .
Sambhavitasya chakirtirmaranadatirichyate .. 34 .
तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्तिका भी कथन करेंगे और माननीय पुरुषके लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है ॥ ३४ ॥
People will tell you about your infamous deeds, which are inexhaustible.
And the fame of one who is respected is more precious than death. 34 ॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
Bhayadranaduparatam mansyante tvaam maharathah . Yesham ch tvam bahumato bhutva yasyasi laghavam . 35 .
और जिनकी दृष्टिमें तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुताको प्राप्त होगा, वे महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे ॥ ३५ ॥
And those great warriors in whose eyes you were once held in high esteem, but now you will be treated as insignificant, will think that you have withdrawn from the battle out of fear. ॥ 35॥
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
Avachyavadanshch bahun vadishyanti tavahitah . Nindantastav samarthyam tato duhkhataram nu kim . 36 .
तेरे वैरीलोग तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुःख और क्या होगा ? ॥ ३६ ॥
Your enemies will criticise your capabilities and say many unspeakable words to you; what could be more painful than that? ॥36॥
Your followers will speak many unspeakable words What could be more painful than blaming your power? 36 ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त बहुत-से हेतुओंको दिखलाकर युद्ध न करनेमें अनेक प्रकारकी हानियोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् युद्ध करनेमें दोनों तरहसे लाभ दिखलाते हुए अर्जुनको युद्धके लिये तैयार होनेकी आज्ञा देते हैं-
Relation-After showing many of the above reasons and describing the various types of losses in not fighting the war, now the Lord shows the benefits of fighting the war in both the ways and orders Arjun to get ready for the war-
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
hato va prapsyasi svargam jitva va bhokshyase mahim . tasmaduttishth kaunteya yuddhay krutanischayah . 37 .
या तो तू युद्धमेंमारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ॥ ३७ ॥
Either you will be killed in the war and attain heaven or you will win the battle and enjoy the kingdom of the earth. Therefore, O Arjuna, stand up determined for the war. ॥37॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त श्लोकमें भगवान्ने युद्धका फल राज्यसुख या स्वर्गकी प्राप्तितक बतलाया; किंतु अर्जुनने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, मैं तो त्रिलोकीके राज्यके लिये भी अपने कुलका नाश नहीं करना चाहता। अतः जिसे राज्यसुख और स्वर्गकी इच्छा न हो उसको किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्लोकमें बतलायी जाती है-
Relation- In the above verse, God has told that the result of war is attainment of royal pleasures or heaven; but Arjun had already said that forget about the kingdom of this world, I do not want to destroy my clan even for the kingdom of three worlds. Therefore, how should a person who does not desire royal pleasures and heaven fight the war, this thing is told in the next verse-
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
Sukhduhkhe same krutva labhalabhou jayaajayo .
Tato yuddhay yujyasva naivam papamvapsyasi . 38 .
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा ॥ ३८ ॥
Considering victory and defeat, gain and loss, pleasure and pain as the same, then get ready for the battle; by fighting in this manner you will not incur any sin. ॥38॥
सम्बन्ध – यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके सिद्धान्तसे तथा क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्धका औचित्य सिद्ध करके अर्जुनको समतापूर्वक युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी; अब कर्मयोगके सिद्धान्तसे युद्धका औचित्य बतलानेके लिये कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करते हैं –
Relationship – Even after proving the justification of war from the principle of Sankhyayoga and from the point of view of Kshatra Dharma, God ordered Arjun to fight the war equally; Now, to explain the justification of war from the principle of Karmayoga, let us introduce the description of Karmayoga –
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
Esha te̕bhihita sankhye buddhiryoge tvimam shrunu .
Buddhya yukto yaya parth karmabandham prahasyasi .39.
हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन – जिस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मोंके बन्धनको भलीभाँति त्याग देगा यानी सर्वथा नष्ट कर डालेगा ॥ ३९ ॥
Hey Parth! This wisdom was said for you about Gyan Yoga and now you listen to it about Karma Yoga – with the wisdom you have acquired, you will leave the bondage of karma completely, that is, you will completely destroy it. 39॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करके अब उसका रहस्यपूर्ण महत्त्व बतलाते हैं-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
Nehabhikramanasho̕sti pratyavayo na vidyate . Svalpamapyasya dharmasya trayate mahato bhayat . 40 .
इस कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी
नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है ॥ ४० ॥
In this Karmayoga, there is no destruction of the beginning i.e. the seed and on the contrary there is no defect in the result.
It is not, but even a little practice of this religion in the form of Karmayoga protects one from the great fear of birth and death. 40 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगका महत्व बतलाकर अब उसके आचरणकी विधि बतलानेके लिये पहले उस कर्मयोगमें परम आवश्यक जो सिद्ध कर्मयोगीकी निश्चयात्मिका स्थायी समबुद्धि है, उसका और कर्मयोगमें बाधक जो सकाम मनुष्योंकी भिन्न-भित्र बुद्धियाँ हैं, उनका भेद बतलाते हैं-
Relationship – Having explained the importance of Karmayoga in this way, now to explain the method of its conduct, let us first explain the difference between the determined and permanent equanimity of the determined soul of the accomplished Karmayoga, which is most essential in that Karmayoga, and the different intellects of successful people which hinder Karmayoga –
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥
vyavasayatmika buddhirekeh kurunandan . bahushakha hyanantaasch buddhayo̕vyavasayinam . 41 .
हे अर्जुन ! इस कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं ।॥ ४१ ॥
Arjun! In this Karmayoga, there is only one determined intellect; But the intellects of indecisive, fruitless people with unstable thoughts are certainly very diverse and infinite. 41 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगीके लिये अवश्य धारण करनेयोग्य निश्चयात्मिका बुद्धिका और त्याग करनेयोग्य सकाम मनुष्योंकी बुद्धियोंका स्वरूप बतलाकर अब तीन श्लोकोंमें सकामभावको त्याज्य बतलानेके लिये सकाम मनुष्योंके स्वभाव, सिद्धान्त और आचार-व्यवहारका वर्णन करते हैं-
Relationship – In this way, after describing the nature of the determined intellect which must be possessed by the Karmayogi and the intellect of the successful human beings which must be sacrificed, now in three verses, we describe the nature, principles and conduct of the successful human beings in order to show that the virtuous feeling can be sacrificed –
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।॥ ४२ ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
yamimam puspitam vacham pravadantyavipaschitah .
vedavadaratah parth nanyadastiti vadinah .. 42 .
kamatmanah svargapara janmakarmfalpradam .
kriyavisheshabahulam bhogaishvaryagatim prati . 43 .
bhogaishvaryaprasaktanam tayapahrutachetasam .
vyavasayatmika buddhih samadhau na vidhiyate . 44 .
हे अर्जुन ! जो भोगोंमें तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफलके प्रशंसक वेदवाक्योंमें प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्गसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है-ऐसा कहनेवाले हैं- वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणीको कहा करते हैं जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है, उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषोंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ॥ ४२-४३-४४ ॥
O Arjuna! Those who are absorbed in pleasures, those who are admirers of the fruits of actions, who love the words of the Vedas, who say in their mind that heaven is the only thing to be attained and that there is nothing better than heaven, those unwise people speak such flowery or pretentious speech which gives the fruit of actions in the form of birth and describes many different types of activities for the attainment of pleasures and prosperity, whose mind has been taken away by that speech, who are extremely attached to pleasures and prosperity, such men do not have a mind that has faith in God. ॥ 42-43-44 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त सकाम मनुष्योंमें निश्चयात्मिका बुद्धिके न होनेकी बात कहकर अब कर्मयोगका उपदेश देनेके उद्देश्यसे पहले भगवान् अर्जुनको उपर्युक्त भोग और ऐश्वर्यमें आसक्तिसे रहित होकर समभावसे सम्पन्न होनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Thus, after talking about the absence of determined mind among successful people who are attached to enjoyment and opulence, now before giving the advice of Karma Yoga, Lord Arjuna is asked to be devoid of attachment to the above mentioned enjoyment and opulence and become full of equanimity –
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
Traigunyavishaya veda nistraigunyo bhavarjun . Nirdvandvo nityasattvastho niryogakshem aatmavan . 45 .
हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकारसे तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले हैं; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनोंमें आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित योगक्षेमको न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो ।। ४५ ।।
Hey Arjun! The Vedas present all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas as mentioned above; Therefore, you should be free from attachment to those pleasures and their means, free from conflicts of joy and sorrow, not desirous of the yogakshema situated in the Supreme God and have an independent conscience. 45.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनको यह बात कही गयी कि सब वेद तीनों गुणोंके कार्यका प्रतिपादन करनेवाले हैं और तुम तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगोंमें और उनके साधनोंमें आसक्तिरहित हो जाओ । अब उसके फलस्वरूप ब्रह्मज्ञानका महत्त्व बतलाते हैं-
Relationship – In the previous verse, it was said to Arjun that all the Vedas are the ones that expound the functions of the three Gunas and you should become free from attachment to all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas. Now, as a result, let us explain the importance of Brahmagyan-
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
Yavanarth udapane sarvatah samplutodake .
Tavan sarveshu vedeshu brahmanasya vijanatah . 46 .
सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मको तत्त्वसे जाननेवाले ब्राह्मणका समस्त वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।॥ ४६ ॥
Once a reservoir full of all sides is attained, a Brahmin who knows Brahman in essence has as much need in all the Vedas as he has in a small reservoir. 46 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार समबुद्धिरूप कर्मयोगका और उसके फलका महत्त्व बतलाकर अब दो श्लोकोंमें भगवान् कर्मयोगका स्वरूप बतलाते हुए अर्जुनको कर्मयोगमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Having thus explained the importance of Karmayoga in the form of equanimity and its results, now in two verses, God explains the nature of Karmayoga and asks Arjun to perform the work by remaining situated in Karmayoga –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
Karmanyevaadhikaraste maa faleshu kadachan .
Maa karmfalaheturbhurma te sango̕stvakarmani . 47 .
तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ॥ ४७ ॥
You have the right only to perform your duty, never to its fruits. Therefore you should not be the cause of the fruits of your deeds and you should not be attached even to not performing your duty. ॥ 47 ॥
सम्बन्ध- उपर्युक्त श्लोकोंमें यह बात कही गयी कि तुमको न तो कर्मोंके फलका हेतु बनना चाहिये और न कर्म न करने में ही आसक्त होना चाहिये अर्थात् कर्मोंका त्याग भी नहीं करना चाहिये। इसपर यह जिज्ञासा होती है कि तो फिर किस प्रकार कर्म करना चाहिये ?
इसलिये भगवान् कहते हैं-
Relationship – It was said in the above verses that you should neither become an object of fruit of your actions nor should you become attached to not doing any actions, that is, you should not even give up your actions. There is a curiosity that then how should one act?
That’s why God says-
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
yogasthah kuru karmani sangam tyaktva dhananjaya . siddhyasiddhayoh samo bhutva samatvam yog uchyate . 48 .
हे धनञ्जय ! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धिवाला होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्यकर्मोंको कर, समत्व ही योग कहलाता है ॥ ४८ ॥
Hey Dhananjay! By renouncing attachment and being equally intelligent in success and failure, you become established in Yoga and perform your duties; equanimity is called yoga. 48 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगकी प्रक्रिया बतलाकर अब सकामभावकी निन्दा और समभावरूप बुद्धियोगका महत्त्व प्रकट करते हुए भगवान् अर्जुनको उसका आश्रय लेनेके लिये आज्ञा देते हैं-
Relationship – Having explained the process of Karmayoga in this way, now condemning the desire for success and revealing the importance of equanimity in the form of Buddhiyoga, Lord Arjuna is ordered to take refuge in it –
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
Duren hyavaram karm buddhiyogaddhananjaya .
Buddhau sharanamanvich krupanah falahetavah . 49 .
इस समत्वरूप बुद्धियोगसे सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धनञ्जय ! तू समबुद्धिमें ही रक्षाका उपाय ढूँढ़ अर्थात् बुद्धियोगका ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।॥ ४९ ॥
The work accomplished through this equanimous form of intellect is of very low grade. That’s why O Dhananjay! You should seek the means of protection only in having the same intelligence, that is, take shelter of the Yoga of the intellect only; Because those who become breadwinners are very poor. 49॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अर्जुनको समताका आश्रय लेनेकी आज्ञा देकर अब दो श्लोकोंमें उस समतारूप बुद्धिसे युक्त महापुरुषोंकी प्रशंसा करते हुए भगवान् अर्जुनको कर्मयोगका अनुष्ठान करनेकी पुनः आज्ञा देकर उसका फल बतलाते हैं-
Relationship – Having thus ordered Arjun to take shelter of equanimity, now in two verses praising the great men with equanimous intelligence, God again orders Arjun to perform the ritual of Karmayoga and explains its result –
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥
Buddhiyukto jahatih ubhe sukritduskrute .
Tasmadyogay yujyasva yogah karmasu kaushalam . 50 .
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनोंको इसी लोकमें त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योगमें लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मोंमें कुशलता
अर्थात् कर्मबन्धनसे छूटनेका उपाय है ।॥ ५० ॥
An equanimous person gives up both virtue and sin in this world, that is, he becomes free from them. With this you engage in equanimous yoga; This equanimity of yoga is the skill in action.
That is, it is a way to get free from the bondage of karma. 50 ॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
Karmajam buddhiyukta hi falam tyaktva manishinah . Janmabandhavinirmuktah padam gacchhantyanamayam . 51 .
क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो निर्विकार परम पदको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥
Because the wise people with equanimity, by renouncing the fruits arising from their actions, become free from the bondage of birth and attain the supreme position without any vices. 51 ॥
सम्बन्ध – भगवान्ने कर्मयोगके आचरणद्वारा अनामय पदकी प्राप्ति बतलायी; इसपर अर्जुनको यह जिज्ञासा हो सकती है कि अनामय परमपदकी प्राप्ति मुझे कब और कैसे होगी ? इसके लिये भगवान् दो श्लोकोंमें कहते हैं-
Relationship – God explained the attainment of Anamay Padak through the practice of Karmayoga; On this, Arjun may be curious that when and how will I attain the supreme state of Anamaya? For this, God says in two verses-
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
Yada te mohakalilam buddhirvyatitarishyati .
Tada gantaasi nirvedam shrotavyasya shrutasya ch . 52.
जिस कालमें तेरी बुद्धि मोहरूप दलदलको भलीभाँति पार कर जायगी, उस समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ॥ ५२ ॥
When your intellect completely crosses the swamp of delusion, then you will attain detachment from all the pleasures of this world and the next, that you have heard and will hear about. ॥ 52 ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
Shrutivipratipanna te yada sthasyati nischala . Samadhavachala buddhistada yogamvapsyasi . 53 .
भाँति-भाँतिके वचनोंको सुननेसे विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मामें अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा अर्थात् तेरा परमात्मासे नित्य संयो हो जायगा ।। ५३ ।।
When your mind, which has been distracted by listening to different words, becomes unmoving and steady in God, then you will attain Yoga, that is, you will be constantly united with God. 53.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने यह बात कही कि जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदलको सर्वथा पार कर जायगी तथा तुम इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंसे विरक्त हो जाओगे, तुम्हारी बुद्धि परमात्मामें निश्चल ठहर जायगी, तब तुम परमात्माको प्राप्त हो जाओगे। इसपर परमात्माको प्राप्त स्थितप्रज्ञ सिद्धयोगीके लक्षण और आचरण जाननेकी इच्छासे अर्जुन पूछते हैं-
Relationship – In the previous verses, God said that when your intellect will completely cross the swamp of illusion and you will become detached from all the pleasures of this world and the next world, your intellect will remain fixed in God, then you will attain God. On this, Arjun asks, desiring to know the characteristics and conduct of an intelligent Siddha Yogi who has attained the state of God:
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
Arjun uvach
Sthitapragnyasya ka bhasha samadhisthasya keshav . Sthitadhih kim prabhashet kimasit vrajet kim . 54 .
अर्जुन बोले- हे केशव ! समाधिमें स्थित परमात्माको प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुषका
क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चला है ? ॥ ५४ ॥
Arjun said- O Keshav! What are the signs of a man of steady intellect who has attained the Supreme Being in Samadhi? How does that man of steady intellect speak, sit and walk? ॥54॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनने परमात्माको प्राप्त हुए सिद्ध योगीके विषयमें चार बातें पूछी हैं; इन चारों बातोंका उत्तर भगवान्ने अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त दिया है, बीचमें प्रसङ्गवश दूसरी बातें भी कही हैं। इस अगले श्लोकमें अर्जुनके पहले प्रश्नका उत्तर संक्षेपमें देते हैं-
Relation – In the previous verse, Arjuna has asked four questions about a Siddha Yogi who has attained God; God has answered all these four questions till the end of the chapter, and in between he has also said other things as per the context. In this next verse, Arjuna’s first question is answered briefly-
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
Prajahati yada kaman sarvan parth manogatan . Aatmanyevatmana tushtah sthitapragnyastadochyate . 55 .
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे आत्मामें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।॥ ५५ ॥
Sri Bhagavan said- O Arjun! When a man completely abandons all the desires of his mind and remains satisfied with the self, then he is called a person of steady wisdom. ॥55॥
सम्बन्ध–स्थितप्रज्ञके विषयमें अर्जुनने चार बातें पूछी हैं, उनमेंसे पहला प्रश्न इतना व्यापक है कि उसके बादके तीनों प्रश्नोंका उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। इस दृष्टिसे तो अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त उस एक ही प्रश्नका उत्तर है; पर अन्य तीन प्रश्नोंका भेद समझनेके लि ऐसा समझना चाहिये कि अब दो श्लोकोंमें ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर दिया जाता है—
Relation- Arjun has asked four questions about sthitapragy, the first question out of which is so broad that the three questions after it are included in it. From this point of view, till the end of the chapter, there is an answer to that one question only; but to understand the difference between the other three questions, it should be understood that now the answer to the second question ‘how does a sthitapragy speak’ is given in two verses-
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
Duhkheshvanudvignamanah sukheshu vigataspruhah . Vitaragabhayakrodhah sthitadhirmuniruchyate . 56 .
दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता, सुखोंकी प्राप्तिमें जो सर्वथा निःस्पृ है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।। ५६॥
The one who does not get agitated in his mind after receiving sorrows, who is completely disinterested in getting pleasures and whose attachment, fear and anger have been destroyed, such a sage is said to have a stable mind. 56॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।॥ ५७ ॥
Yah sarvatranabhisnehastattatprapya shubhashubham . Nabhinandati na dveshti tasya pragnya pratishthita .. 57 .
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥ ५७ ॥
A man who is devoid of any affection towards anything and on receiving any good or bad thing neither gets pleased nor hates it, his intellect is stable. ॥ 57॥
सम्बन्ध – ‘स्थिरबुद्धिवाला योगी कैसे बोलता है ?’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर समाप्त करके अब भगवान् ‘वह कैसे बैठता है ?’ इस तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियोंका सर्वथा उसके वशमें हो जाना और आसक्तिसे रहित होकर अपने-अपने विषयोंसे उपरत हो जाना ही स्थितप्रज्ञ पुरुषका बैठना है-
Relationship – ‘How does a yogi with stable intellect speak?’ After finishing the answer to this second question, now God asks ‘How does he sit?’ While answering this third question, it is shown that the sitting position of a Sthitapragya Purusha is to be completely under the control of the senses of a Sthitapragya Purusha and to be free from attachment and to be above one’s own objects –
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
Yada sanharate chayam kurmo̕nganiv sarvashah . Indriyanindriyaarthebhyastasya pragnya pratishthita . 58 .
और कछुआ सब ओरसे अपने अङ्गोंको जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये) ॥ ५८ ॥
And just as a tortoise withdraws its limbs from all sides, similarly when a man withdraws his senses from the sense-objects in every way, then his intellect is stable (it should be considered so). ॥ 58॥
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञके बैठनेका प्रकार बतलाकर अब उसमें होनेवाली शङ्काओंका समाधान करनेके लिये अन्य प्रकारसे किये जानेवाले इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा स्थितप्रज्ञके इन्द्रियसंयमकी विलक्षणता दिखलाते हैं-
Relationship – While answering the third question in the previous verse, by telling the type of sitting of the Sthitapragya, now to solve the doubts arising in it, we show the uniqueness of the sense control of the Sthitapragya as compared to the other types of sense control –
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
vishaya vinivartante niraharasya dehinah . rasavarjam raso̕pyasya param drushtva nivartate . 59 .
इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी तो आसक्ति भी परमात्माका साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ॥ ५९ ॥
Even for a person who does not grasp the objects through the senses, only the objects are destroyed, but the attachment residing in them is not destroyed. Even the attachment of this person who is situated in wisdom goes away after realizing God. 59॥
Bhagavad Gita: Chapter 1, Verse 1
धृतराष्ट्र उवाच ।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १ ॥
Dharmakshetre kurukshetre samveta yuyutsavah.
Maamkah pandavaschaiv kimakurvat sanjaya . 1 .
Translation
धृतराष्ट्र बोले- हे सञ्जय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित, युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? ॥ १॥
Dhritarashtra said, “O Sanjaya! What did my and Pandu’s sons, who were eager for war, do when they gathered at the holy land of Kurukshetra?” ॥1॥
QUESTION & ANSWER
प्रश्न-कुरुक्षेत्र किस स्थानका नाम है और उसे धर्मक्षेत्र क्यों कहा जाता है ?
उत्तर- महाभारत, वनपर्वके तिरासीवें अध्यायमें और शल्यपर्वके तिरपनवें अध्यायमें कुरुक्षेत्रके माहात्म्यका विशेष वर्णन मिलता है; वहाँ इसे सरस्वती नदीके दक्षिणभाग और दृषद्वती नदीके उत्तरभागके मध्यमें बतलाया है। कहते हैं कि इसकी लंबाई-चौड़ाई पाँच-पाँच योजन थी। यह स्थान अंबालेसे दक्षिण और दिल्लीसे उत्तरकी ओर है। इस समय भी कुरुक्षेत्र नामक स्थान वहीं है। इसका एक नाम समन्तपञ्चक भी है। शतपथब्राह्मणादि शास्त्रोंमें कहा है कि यहाँ अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा आदि देवताओंने तप किया था; राजा कुरुने भी यहाँ बड़ी तपस्या की थी तथा यहाँ मरनेवालोंको उत्तम गति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और भी कई बातें हैं, जिनके कारण उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र कहा जाता है।
प्रश्न- धृतराष्ट्रने ‘मामकाः’ पदका प्रयोग किनके लिये किया है और ‘पाण्डवाः’ का किनके लिये ? और उनके साथ ‘समवेताः’ और ‘युयुत्सवः’ विशेषण लगाकर जो ‘किम् अकुर्वत’ कहा है, उसका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- मामकाः पाण्डवाश्चैव का प्रयोग धृतराष्ट्रने निज पक्षके समस्त योद्धाओंसहित अपने दुर्योधनादि एक सौ एक पुत्रोंके लिये किया है और ‘पाण्डवाः’ पदका युधिष्ठिर-पक्षके सब योद्धाओंसहित युधिष्ठिरादि पाँचों भाइयोंके लिये । ‘समवेताः’ और ‘युयुत्सवः’ विशेषण देकर और ‘किम् अकुर्वत’ कहकर धृतराष्ट्रने गत दस दिनोंके भीषण युद्धका पूरा विवरण जानना चाहा है कि युद्धके लिये एकत्रित इन सब लोगोंने युद्धका प्रारम्भ कैसे किया ? कौन किससे कैसे भिड़े ? और किसके द्वारा कौन, किस प्रकार और कब मारे गये ? आदि ।
भीष्मपितामहके गिरनेतक भीषण युद्धका समाचार धृतराष्ट्र सुन ही चुके हैं, इसलिये उनके प्रश्नका यह तात्पर्य नहीं हो सकता कि उन्हें अभी युद्धकी कुछ भी खबर नहीं है और वे यह जानना चाहते हैं कि क्या धर्मक्षेत्रके प्रभावसे मेरे पुत्रोंकी बुद्धि सुधर गयी और उन्होंने पाण्डवोंका स्वत्व देकर युद्ध नहीं किया ? अथवा क्या धर्मराज युधिष्ठिर ही धर्मक्षेत्रके प्रभावसे प्रभावित होकर युद्धसे निवृत्त हो गये ? या अबतक दोनों सेनाएँ खड़ी ही हैं, युद्ध हुआ ही नहीं और यदि हुआ तो उसका क्या परिणाम हुआ ? इत्यादि ।
Question-Which place is called Kurukshetra and why is it called Dharmakshetra?
Answer- In the 83rd chapter of Mahabharata, Vanaparva and 53rd chapter of Shalyaparva, special description of the greatness of Kurukshetra is found; there it is said to be situated between the southern part of Saraswati river and the northern part of Drishadvati river. It is said that its length and breadth were five yojanas each. This place is south of Ambala and north of Delhi. Even today, the place called Kurukshetra is there. One of its names is Samantapanchaka. It is said in Shatapath Brahmana and other scriptures that gods like Agni, Indra, Brahma etc. had performed penance here; King Kuru had also performed great penance here and those who die here attain a good state. Apart from this, there are many other things due to which it is called Dharmakshetra or Punyakshetra.
Question- For whom did Dhritarashtra use the word ‘Maamkaah’ and for whom did he use ‘Pandavaah’? And what is the meaning of the adjective ‘Samvetaah’ and ‘Yuyutsavah’ which has been said and said ‘Kim Akurvat’?
Answer: Dhritarashtra has used Mamakah Pandavaschaiva for his one hundred and one sons including Duryodhana and all the warriors of his own side and the word ‘Pandavah’ has been used for all the warriors of Yudhishthir’s side and the five brothers of Yudhishthira. By giving the adjectives ‘Samavetaah’ and ‘Yyuutsavah’ and by saying ‘Kim Akurvat’, Dhritarashtra wanted to know the complete details of the fierce war of the last ten days, how did all these people gathered for the war, start the war? Who fought with whom and how? And by whom, who was killed, how and when? Etcetera .
Dhritarashtra had already heard the news of the fierce war till Bhishma Pitamah fell, so the meaning of his question cannot be that he has no news of the war yet and he wants to know whether the wisdom of my sons improved due to the effect of Dharmakshetra and they did not fight the war by giving the rights to the Pandavas? Or did Dharmaraja Yudhishthir himself withdraw from the war after being influenced by the effect of Dharmakshetra? Or till now both the armies are standing, the war did not take place and if it did, then what was its result? etc.
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
शष्य
सञ्जय बोले- उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकष्ट दोणाचार्यके पास जाकर यह वचन कहा ॥ २ ॥
सम्बन्ध- द्रोणाचार्यके पास जाकर दुर्योधनने जो कुछ कहा, अब उसे बतलाते हैं-
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३ ॥
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये ।। ३ ।।
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाकी व्यूहरचना दिखलाकर अब दुर्योधन तीन श्लोकों द्वारा पाण्डव-सेनाके प्रमुख महारथियोंके नाम बतलाते हैं-
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४ ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्चशैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥५॥
युधाम् ——_–क्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६ ॥
इस सेनामें बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्धमें भीम और अर्जुनके समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मुनष्योंमें श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं ॥ ४-५-६ ॥
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाके प्रधान योद्धाओंके नाम बतलाकर अब दुयोंधन आचार्य द्रोणसे अपनी सेनाके प्रधान योद्धाओंको जान लेनेके लिये अनुरोध करते हैं-
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम । नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते ॥ ७ ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्षमें भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारीके लिये मेरी सेनाके जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ ।। ७ ।।
सम्बन्ध-अब दो श्लोकोने दुयोंधन अपने पक्षके प्रधान वीरोंके नाम बतलाते हुए अन्यान्य वीरोके सहित उनकी प्रशंसा करते हैं
भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ ८ ॥
आप – द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा ॥ ८ ॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।। ९ ।।
और भी मेरे लिये जीवनकी आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित और सब के सब युद्धमें चतुर हैं ।॥ ९ ॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १० ॥
भीष्मपितामहद्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकारसे अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगोंकी यह सेना जीतनेमें सुगम है ॥ १० ॥
सम्बन्य–इस अकार भीष्मद्वारा संरक्षित अपनी सेनाको अजेय बताकर, अब दुर्योधन सब ओरसे भीष्मकी रक्षा करनेके लिये द्रोणाचार्य आदि समस्त महारथियोंसे अनुरोध करते हैं-
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥
इसलिये सब मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसन्देह भीष्मपितामहकी ही सब ओरसे रक्षा करें ॥ ११ ॥
सम्बन्ध – दुर्योधनके द्वारा अपने पक्षके महारथियोंकी विशेषरूपसे पितामह भीष्मकी प्रशंसा किये जानेका वर्णन सुनाकर अब सञ्जय उसके बादकी घटनाओंका वर्णन करते हैं-
तस्य संजनयन् हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥
कौरवोंमें वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्मने उस दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वरसे सिंहकी दहाड़के समान गरजकर शङ्ख बजाया ॥ १२ ॥
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥
इसके पश्चात् शङ्ख और नगारे तथा ढोल, मृदङ्ग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही उठे । उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – धृतराष्ट्रने पूछा था कि युद्धके लिये एकत्र होनेके बाद मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया, इसके उत्तरमें सञ्जयने अबतक धृतराष्ट्रके पक्षवालोंकी बात सुनायी; अब पाण्डवोंने क्या किया, उसे पाँच श्लोकोंमें बतलाते हैं-
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥
इसके अनन्तर सफेद घोड़ोंसे युक्त उत्तम रथमें बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुनने भी अलौकिक शङ्ख बजाये ॥ १४ ॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्डूं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥
श्रीकृष्ण महाराजने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुनने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्र नामक महाशङ्ख बजाया ॥ १५ ॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शङ्ख बजाये ॥ १६ ॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ १७ ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ १८ ॥
श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और इत- अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु – इन सभीने, हे राजन् ! सब ओरसे अलग-अलग शङ्ख बजाये ॥ १७-१८ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके पश्चात् पाण्डव-सेनाके अन्यान्य शूरवीरोंद्वारा सब ओर शङ्ख बजाये जानेकी बात कहकर अब उस शङ्खध्वनिका क्या परिणाम हुआ ? उसे सञ्जय बतलाते हैं-
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९ ॥
और उस भयानक शब्दने आकाश और पृथ्वीको भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रोंके यानी आपके पक्षवालोंके हृदय विदीर्ण कर दिये ॥ १९ ॥
सम्बन्ध-पाण्डवोंकी शङ्खध्वनिसे कौरववीरोंके व्यथित होनेका वर्णन करके, अब चार श्लोकोंमें भगवान् श्रीकृष्णके प्रति कहे हुए अर्जुनके उत्साहपूर्ण वचनोंका वर्णन किया जाता है-
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ २० ॥ हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुनने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको उस शस्त्र चलनेकी तैयारीके समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराजसे यह देखकर, वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ॥ २०-२१ ॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥
और जबतक कि मैं युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओंको भल प्रकार देख लूँ कि इस युद्धरूप व्यापारमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना योग्य है, तबतक उसे खड़ा रखिये ।। २२ ॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥
दुर्बुद्धि दुर्योधनका युद्धमें हित चाहनेवाले जो-जो ये राजालोग इस सेनामें आये हैं, इन युद्ध करनेवालोंको मैं देखूँगा ॥ २३ ॥
सम्बन्ध-अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर भगवान्ने क्या किया ? अब दो श्लोकोंमें सञ्जय उसका वर्णन करते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥ २५ ॥
सञ्जय बोले- हे धृतराष्ट्र ! अर्जुनद्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्रने दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणाचार्यके सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने उत्तम रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्धके लिये जुटे हुए इन कौरवोंको देख ॥ २४-२५ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण———सुनकर अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं–
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान् भ्रातून पुत्रान् पौत्रान् सर्वीस्तथा ॥ २६ ॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
इसके बाद पृथापुत्र अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित ताऊ-चाचोंको, दादों-परदादोंको, गुरुओंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुहृदोंको भी देखा ॥ २६ और २७ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-इस प्रकार सबको देखनेके बाद अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं-
तान् समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ २७ ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओंको देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणासे युक्त होकर शोक करते हुए यह बचन बोले ॥ २७ वेंका उत्तरार्ध और २८ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-बन्धुस्नेहके कारण अर्जुनकी कैसी स्थिति हुई, अब ढाई श्लोकोंमें अर्जुन स्वयं उसका वर्णन करते हैं-
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ २८ ॥ सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥ २९ ॥
अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इस स्वजन समुदायको देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीरमें कम्प एवं होमाञ्च हो रहा है ॥ २८वेंका उत्तरार्ध और २९ ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३० ॥
हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहनेको भी समर्थ नहीं हूँ ॥ ३० ॥
सम्बन्ध—अपनी विषादयुक्त स्थितिका वर्णन करके अब अर्जुन अपने विचारोंके अनुसार युद्धका अनौचित्य सिद्ध करते हैं-
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥
हे केशव ! मैं लक्षणोंको भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्धमें स्वजन-समुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता ॥ ३१ ॥
सम्बन्ध – अर्जुनने यह कहा कि स्वजनोंको मारनेसे किसी प्रकारका भी हित होनेकी सम्भावना नहीं है, अब फिर वे उसीकी पुष्टि करते हैं-
न काले विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥
हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही । हे गोविन्द ! ह ऐसे राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगोंसे और जीवनसे भी क्या लाभ है ? ॥ ३२ ॥
सम्बन्ध – अब अर्जुन स्वजनवधसे मिलनेवाले राज्य-भोगादिको न चाहनेका कारण दिखलाते हैं-
येषामर्थे काङ्क्षित्तं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥
हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको त्यागकर युद्धमें खड़े हैं ॥ ३३ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार युद्धका अनौचित्य दिखलाकर अब अर्जुन युद्धमें मरनेके लिये तैयार होकर आये हुए स्वजन-समुदायमें कौन-कौन है उनका संक्षेप में वर्णन करते हैं?
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।। ३४ ।।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ।॥ ३४ ॥
सम्बन्ध – सेनामें उपस्थित शूरवीरोंके साथ अपना सम्बन्ध बतलाकर अब अर्जुन किसी भी हेतुसे इन्हें मारनेमें अपनी अनिच्छा प्रकट करते हैं-
एतान्न हन्तुमिच्छामि प्घ्नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ ३५ ॥
हे मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वीके लिये तो कहना ही क्या है ? ॥ ३५ ॥
सम्बन्ध-यहाँ यदि यह पूछा जाय कि आप त्रिलोकीके राज्यके लिये भी उनको मारना क्यों नहीं चाहते, तो इसपर अर्जुन अपने सम्बन्धियोंको मारनेमें लाभका अभाव और पापकी सम्भावना बतलाकर अपनी बातको पुष्ट करते हैं-
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियोंको मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ॥ ३६ ॥
सम्बन्ध – स्वजनोंको मारना सब प्रकारसे हानिकारक बतलाकर अब अर्जुन अपना मत प्रकट कर रहे हैं-
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥
अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्बको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ॥ ३७ ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि कुटुम्ब-नाशसे होनेवाला दोष तो दोनोंके लिये समान ही है; फिर यदि इस दोषपर विचार करके दुर्योधनादि युद्धसे नहीं हटते, तब तुम ही इतना विचार क्यों करते हो ? अर्जुन दो श्लोकोंमें इस प्रश्नका उत्तर देते हैं-
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन
॥ ३९ ॥
यद्यपि लोभसे भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको और मित्रोंसे विरोध करनेमें पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको जाननेवाले हमलोगोंको इस पापसे हटनेके लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये ॥ ३८-३९ ॥
सम्बन्ध-कुलके नाशसे कौन-कौन-से दोष उत्पन्न होते हैं, इसपर अर्जुन कहते हैं-
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।॥ ४० ॥
कुलके नाशसे सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्मके नाश हो जानेपर सम्पूर्ण कुल् पाप भी बहुत फैल जाता है ॥ ४० ॥
सम्बय-इस प्रकार जब समस्त कुलमें पाप फैल जाता है तब क्या होता है, अर्जुन अब उसे बतलाते हैं—
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४१ ॥
हे कृष्ण ! पापके अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वाष्र्णेय ! स्त्रियोंके दूषित हो जानेपर वर्णसङ्कर उत्पन्न होता है ॥ ४१ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्कर सन्तानके उत्पन्न होनेसे क्या-क्या हानियाँ होती हैं, अर्जुन अब उन्हें बतलाते हैं-
सङ्करो नरकायैव कुलप्घ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४२ ॥
वर्णसङ्कर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं ॥ ४२ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्करकारक दोषोंसे क्या हानि होती है, अब उसे बतलाते हैं-
दोषैरेतैः कुलप्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४३ ॥
इन वर्णसङ्करकारक दोषोंसे कुलघातियोंके सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।॥ ४३ ॥
सामान्या- कुलधाम’ और ‘जातिधर्म’ के नाशसे क्या हानि है; अब इसपर कहते हैं-
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४४ ।।
हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्योंका अनिश्चित कालतक नरकमे वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।॥ ४४ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार स्वजन-वधसे होनेवाले महान् अनर्थका वर्णन करके अब अर्जुन युद्धके उद्योगरूप अपने कृत्यपर शोक प्रकट करते हैं-
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥45॥
हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करनेको तैयार हो गये हैं, जो राज्य पौर सुखके लोभसे स्वजनोंको मारनेके लिये उद्यत हो गये हैं ।॥ ४५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार पश्चात्ताप करनेके बाद अब अर्जुन अपना निर्णय सुनाते हैं-
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाण । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६ ॥
यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवालेको शस्त्र हाथमें लिये हुए धृतराष्ट्रके पुत्र रणमें मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ॥ ४६ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्णसे इतनी बात कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया, इस जिज्ञासापर अर्जुनकी स्थिति बतलाते हुए सञ्जय कहते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४७ ॥
सञ्जय बोले – रणभूमिमें शोकसे उद्विग्न मनवाला अजून इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुषको त्यागकर रथके पिछले भागमें बैठ गया ॥ ४७ ॥
★★★★★★★
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिपर जो उपर्युक्त पुष्पिका दी गयी है, इसमें श्रीमद्भगवद्गीताका माहात्य और प्रभाव ही प्रकट किया गया है। ‘ॐ तत्सत्’ भगवान्के पवित्र नाम हैं (१७।२३), स्वयं श्रीभगवान्के द्वारा गायी जानेके कारण इसका नाम ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है, इसमें उपनिषदोंका सारतत्व संगृहीत है और यह स्वयं भी उपनिषद् है, इससे इसको ‘उपनिषद्’ कहा गया है, निर्गुण-निराकार परमात्माके परम तत्त्वका साक्षात्कार करानेवाली होनेके कारण इसका नाम ‘ब्रह्मविद्या’ है और जिस कर्मयोगका योगके नामसे वर्णन हुआ है, उस निष्कामभावपूर्ण कर्मयोगका तत्त्व बतलानेवाली होनेसे इसका नाम ‘योगशास्त्र’ है। यह साक्षात् परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण और भक्तवर अर्जुनका संवाद है और इसके प्रत्येक अध्यायमें परमात्माको प्राप्त करानेवाले योगका वर्णन है, इसीसे इसके लिये
‘श्रीकृष्णार्जुनसंवादे…..योगो नाम’ कहा गया है।
★★★★★★★
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दूसरा अध्याय
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सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १ ॥
सञ्जय बोले- उस प्रकार करुणासे व्याप्त और आँसुओंसे पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तुझे इस असमयमें यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ ?
योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित है, न स्वर्गको देनेवाला है और न कीर्तिको
करनेवाला ही है ॥ २ ॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ ३ ॥
इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्याग कर युद्धके लिये खड़ा हो जा ॥ ३ ॥
सम्बन्ध – भगवान्के इस प्रकार कहनेपर गुरुजनोंके साथ किये जानेवाले युद्धको अनुचित सिद्ध करते हुए दो श्लोकोंमें अर्जुन अपना निश्चय प्रकट करते हैं-
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
अर्जुन बोले- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमिमें किस प्रकार बाणोंसे भीष्मपितामह और द्रोणाचार्यके विरुद्ध लड्रॅगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥ ४ ॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥
इसलिये इन महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर मैं इस लोकमें भिक्षाका अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ। क्योंकि गुरुजनोंको मारकर भी इस लोकमें रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगोंको ही तो भोगूँगा ॥ ५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को संतोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गई। तब वह फिर कहने लगे।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। याचेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना – इन दोनोंमेंसे कौन-स श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे । और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्रके पुत्र हमारे मुकाबलेमे खड़े हैं।
॥ ६ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्तव्यका निर्णय करनेमें अपनी असमर्थता प्रकट करनेके बाद अब अर्जुन भगवान्की शरण ग्रहण करके अपना निश्चित कर्तव्य बतलानेके लिये उनसे प्रार्थना करते हैं-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥
इसलिये कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; हुआ क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ॥ ७ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार शिक्षा देनेके लिये भगवान्से प्रार्थना करके अब अर्जुन उस प्रार्थनाका हेतु बतलाते हुए अपने विचारोंको प्रकटकरते हैं-
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥
क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्यको और देवताओंके स्वामीपनेको प्राप्त होकर भी मैं उस उपायको नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियोंके सुखानेवाले शोकको दूर कर सकें ॥ ८ ॥
सम्बन्ध -इसके बाद अर्जुनने क्या किया, यह बतलाया जाता है-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥
सञ्जय बोले- हे राजन् ! निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान्से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ॥ ९ ॥
सामान्य-इस प्रकार अर्जुनके चुप हो जानेपर भगवान् श्रीकृष्णने क्या किया, इस जिज्ञासापर सञ्जय कहते हैं-
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए-से यह वचन बोले ॥ १० ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त प्रकारसे चिन्तामग्न अर्जुनने जब भगवान्के शरण होकर अपने महान् शोककी निवृत्तिका उपाय पूछा और यह कहा कि इस लोक और परलोकका राज्यसुख इस शोककी निवृत्तिका उपाय नहीं है, तब अर्जुनको अधिकारी समझकर उसके शोक और मोहको सदाके लिये नष्ट करनेके उद्देश्यसे भगवान् पहले नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनपूर्वक सांख्ययोगकी दृष्टिसे भी युद्ध करना कर्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्यनिष्ठाका वर्णन करते हैं-
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके से वचनोंको कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ॥ ११ ॥
सम्बन्ध-
पूर्वलोकयाने असे यह बात कही कि जिन भीषादि खजनोंके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके कभी तक करना किस कारणसे उचित नहीं है। अतः भगवान् आमाकी नित्यताका प्रतिपादन करके आमदृटिसे उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ।।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग न थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥ १२ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन करके अब उसकी निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए आत्माके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही
अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारता प्रतिपादन करके उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा नित्य और निर्विकार हो तो भी बन्धु-बान्धवादिके साथ होनेवाले संयोग-वियोगादिसे सुख-दुःखादिका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, अतएव शोक हुए बिना कैसे रह सकता है ? इसपर भगवान् सब प्रकारके संयोग-वियोगादिको अनित्य बतलाकर उनको सहन करनेकी आज्ञा देते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ॥ १४ ॥
सम्बन्ध – इन सबको सहन करनेसे
क्या लाभ होगा ? इस जिज्ञासापर कहते हैं-
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है ॥ १५ ॥
O best of men, whom these things do not disturb? He who is steadfast in equal pain and pleasure is fit for immortality. 15 ॥
सरम्बाय-बारहवें और तेरहवें श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन किया तथा चौदहवें श्लोकमें इन्द्रियोंके साथ विषयोंके संयोगोंको अनित्य बतलाया, किंतु आत्मा क्यों नित्य हैं और ये संयोग क्यों अनित्य हैं ? इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया, अतएव इस श्लोकमें भगवान् नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनकी रीति बतलानेके लिये दोनोंके लक्षण बतलाते हैं
• दूसरा अध्याय ७१
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
nasato vidyate bhavo nabhavo vidyate satah ubhayorapi drushto̕ntastvanayostattvadarshibhih . 16 .
असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत्का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है ॥ १६ ॥
There is no existence of the unreal and no non-existence of the real. Those who see the Absolute Truth have seen the difference between the two. 16 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें जिस ‘सत्’ तत्त्वके लिये यह कहा गया है कि ‘उसका अभाव नहीं है’, वह ‘सत्’ तत्त्व क्या है- इस जिज्ञासापर कहते हैं-
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
avinashi tu tadviddhi yen sarvamidam tatam . vinashamavyayasyasya na kaschitkartumarhati . 17 .
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्-दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ १७ ॥
But know that which is indestructible, by which all this is pervaded. No one can destroy this inexhaustible Supreme Being. 17 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार ‘सत्’ तत्त्वकी व्याख्या हो जानेके अनन्तर पूर्वोक्त ‘असत्’ वस्तु क्या है, इस जिज्ञासापर कहते हैं—
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥
Antavant ime dehaa nityasyoktah shareerinah . anashino̕prameyasya tasmadyudhyasva bharat . 18 .
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे है।
गये इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ॥ १८ ॥
These bodies are finite, and are said to be embodied in the eternal. O descendant of Bharata, fight against the indestructible and immeasurable Lord. 18 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन करके अर्जुनको युद्धके लिये आज्ञा दी, किंतु अर्जुनने जो यह बात कही थी कि ‘मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमकर होगा’ उसका स्पष्ट समाधान नहीं किया। अतः अगले श्लोकोंमें ‘आत्माको मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं-
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥*
ya enam vetti hantaram yaschainam manyate hatam . ubhou tau na vijanito nayam hanti na hanyate . 19 .
जो इस आत्माको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है ॥ १९ ॥
Whoever knows him to be a murderer and whoever thinks he is killed He who does not recognize both of them neither kills nor is killed. 19 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें यह कहा कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसपर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसमें क्या कारण है ? इसके उत्तरमें भगवान् आत्मामें सब प्रकारके विकारोंका अभाव बतलाते हुए उसके स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥
Na jayate mriyate va kadachinnayam bhutva bhavita va na bhuyah . ajo nityah shashvato̕yam purano na hanyate hanyamane sharire . 20 .
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ॥ २० ॥
He is never born or dies, nor has He ever been, nor will He ever be again. This Supreme Being is unborn, eternal, everlasting and ancient. When the body is killed, it is not killed. 20 ॥
सम्बन्ध-उऔसवे श्लोकये भगवान्ने यह बात कही कि आत्या न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है। उसके अनुसार बीसवें श्लोकमें उसे विकारहित बतलाकर इस बातका प्रतिपादन किया कि वह क्यों नहीं मारा जाता। अब अगले श्लोकमें यह बतलाते हैं कि वह किसीको मारता क्यों नहीं ? –
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
Vedavinashinam nityam ya enamajamavyayam . katham sa purushah parth kam ghatayati hanti kam . 21 .
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्माको नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ॥ २१ ॥
He who knows this unborn and inexhaustible Veda is eternally indestructible. How, O son of Pṛthā, does that person kill whom? Whom does he kill? 21 ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह शङ्का होती है कि आत्मा नित्य और अविनाशी है—उसका कभी नाश नहीं हो सकता, अतः उसके लिये शोक करना नहीं बन सकता और शरीर नाशवान् है – उसका नाश होना अवश्यम्भावी है, अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता – यह सर्वथा ठीक है। किंतु आत्माका जो एक शरीरसे सम्बन्ध छूटकर दूसरे शरीरसे सम्बन्ध होता है, उसमें उसे अत्यन्त कष्ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है? इसपर कहते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥
Vasansi jirnani yatha vihay navani grunati naro̕parani . tatha sharirani vihay jirnanyanyani sanyati navani dehi . 22 .
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ॥ २२ ॥
Just as a man puts off his old clothes and puts on new ones, Similarly, the embodied soul gives up his old body and assumes new ones. 22 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार एक शरीरसे दूसरे शरीरके प्राप्त होनेमें शोक करना अनुचित सिद्ध करके, अब भगवान् आत्माका स्वरूप दुर्विज्ञेय होनेके कारण पुनः तीन श्लोकोंद्वारा प्रकारान्तरसे उसकी नित्यता, निराकारता और निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए उसके विनाशकी
आशङ्कासे शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
Nainam chhindanti shastrani nainam dahati pavakah . na chainam cledayantyapo na shoshayati marutah . 23 . आत्याको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।। २३ ।।
Weapons cannot cut Him, nor can fire burn Him. It is not wetted by water nor dried by the wind 23 ॥
अच्छेद्यो ऽयमदाह्यो ऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
achedyo ̕yamadahyo ̕yamakledyo̕shoshya eva ch .
nityah sarvagatah sthanurachalo̕yam sanatanah . 24 .
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ॥ २४ ॥
This body can be cut, burned, washed or dried.
This Supreme Being is eternal omnipresent stable immovable 24 ॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्ते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥
Avyakto̕yamachintyo̕yamvikaryo̕yamuchate .
tasmadevam viditvainam nanushochitumarhasi . 25 .
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन ! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे जानकर तू शोक करनेके योग्य नहीं है
अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ॥ २५ ॥
This is called the unmanifest, the unthinkable, the incorruptible.
Therefore, knowing this, you should not lament. 25 ॥
सम्बन्ध—उपर्युक्त श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माको अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया: अब दो श्लोकोंद्वारा आत्माको औपचारिकरूपसे जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है-
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
Ath chainam nityajatam nityam va manyase mrutam .
Tathapi tvam mahabaho naivam shochitumarhasi . 26 .
किंतु यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २६ ॥
And yet you think that He is eternally born or eternally dead.
Yet, O mighty-armed one, you should not lament in this way. 26 ॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥
Jatasya hi dhruvo mrutyurdhruvam janm mrutasya ch .
Tasmadapariharye̕rthe na tvam shochitumarhasi . 27 .
क्योंकि इस मान्यताके अनुसार जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २७ ॥
Death is certain for one who is born, and birth is certain for one who is dead.
Therefore, you should not lament for something that is inevitable. 27 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंद्वारा आत्माको नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, उन दोनोंके से ही आत्माके लिये शोक करना नहीं बनता – यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोकमें यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियोंके शरीरोंको उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता –
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥
Avyaktaadini bhutani vyaktamadhyani bharat . avyaktanidhananyev tatra ka paridevana . 28 .
अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है ? ॥ २८ ॥
Arjuna! All beings were invisible before birth and will become invisible after death too; they are visible only in between; then what is there to mourn in such a situation? ॥28॥
सम्बन्ध- आत्मतत्त्व अत्यन्त दुबर्बोध होनेके कारण उसे समझानेके लिये भगवान्ने उपर्युक्त श्लोकोंद्वारा भिन्न-भिन्न प्रकारसे उसके स्वरूपका वर्णन किया: अब अगले श्लोकमें उस आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका निरूपण करते हैं-
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥*
Aashcharyavatpashyati kaschidenamaascharyavadvadati tathaiv chanyah . Aashcharyavachainamanyah shrunoti shrutvapyenam ved na chaiv kaschit . 29 .
कोई एक महापुरुष ही इस आत्माको आश्चर्यकी भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्वका आश्चर्यकी भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्यकी भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ।। २९॥
Only one great person sees this soul as a wonder and similarly, only another great person describes its essence as a wonder and only another authoritative person hears about it as a wonder and some people do not know it even after hearing it. .२९.
सम्बन्ध-इस प्रकार आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका प्रतिपादन करके अब, ‘आत्मा नित्य ही अवध्य है; अतः किसी भी प्राणीके लिये शोक करना उचित नहीं है’ – यह बतलाते हुए भगवान् सांख्ययोगके प्रकरणका उपसंहार करते हैं-
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥
Dehi nityamavadhyo̕yam dehe sarvasya bharat . Tasmatsarvani bhutani na tvam shochitumarhasi . 30 .
हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीरोंमें सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ ३० ॥
Hey Arjun! This soul is always present in everyone’s bodies. For this reason you are not worthy of mourning for all living beings. 30 ॥
सम्बन्ध-यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके अनुसार अनेक युक्तियोंद्वारा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सम, निर्विकार और अकर्ता आत्माके एकत्व, नित्यत्व, अविनाशित्व आदिका प्रतिपादन करके तथा शरीरोंको विनाशशील बतलाकर आत्माके या शरीरोंके लिये अथवा शरीर और आत्माके वियोगके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया। साथ ही प्रसङ्गवश आत्माको जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी शोक
करनेके अनौचित्यका प्रतिपादन किया और अर्जुनको युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी। अब सात श्लोकोंद्वारा क्षात्रधर्मके अनुसार शोक करना अनुचित सिद्ध करते हुए अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
Relationship – Even according to Sankhyayoga, God proved it inappropriate to mourn for the soul or the bodies or for the separation of the body and the soul by propounding the oneness, eternality, indestructibility etc. of the eternal, pure, Buddha, equal, disorderless and non-doing soul and by declaring the bodies to be perishable through many strategies. And also, incidentally, there is sorrow for considering the soul to be born and dying. Propounded the impropriety of doing so and ordered Arjun to fight. Now, through seven verses, Arjuna is encouraged for war by proving that it is inappropriate to mourn as per Kshatradharma –
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
Svadharmamapi chavekshya na vikampitumarhasi . Dharmyaddhi yuddhachreyo̕nyatkshatriyasya na vidyate . 31 .
तथा अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेयोग्य नहीं है यानी तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ॥ ३१॥
And even after looking at your Dharma, you are not worthy of being fearful, that is, you should not be afraid; because for a Kshatriya there is no other welfare duty greater than a Dharma-based war. ॥ 31॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
Yadracchhaya chopapannam svargadvarampavrutam . Sukhinah kshatriyah parth labhante yuddhmidrsham . 32 .
हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं ॥ ३२ ॥
O Partha! Only the fortunate Kshatriyas get to experience this type of war which is like the gates of heaven which are automatically attained and open. ॥ 32॥
सम्बन्ध – इस प्रकार धर्ममय युद्ध करनेमें लाभ दिखलानेके बाद अब उसे न करनेमें हानि दिखलाते हुए भगवान् अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
ath chettvamimam dharmya sangramam na karishyasi . tatah svadharm kirti ch hitva papamvapsyasi . 33 .
किंतु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्धको नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा ॥ ३३ ॥
But if you do not fight this righteous war, you will lose your religious principles and glory and will commit sin. ॥ 33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। ३४ ॥
Akirtim chapi bhutani kathayishyanti te̕vyayam .
Sambhavitasya chakirtirmaranadatirichyate .. 34 .
तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्तिका भी कथन करेंगे और माननीय पुरुषके लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है ॥ ३४ ॥
People will tell you about your infamous deeds, which are inexhaustible.
And the fame of one who is respected is more precious than death. 34 ॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
Bhayadranaduparatam mansyante tvaam maharathah . Yesham ch tvam bahumato bhutva yasyasi laghavam . 35 .
और जिनकी दृष्टिमें तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुताको प्राप्त होगा, वे महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे ॥ ३५ ॥
And those great warriors in whose eyes you were once held in high esteem, but now you will be treated as insignificant, will think that you have withdrawn from the battle out of fear. ॥ 35॥
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
Avachyavadanshch bahun vadishyanti tavahitah . Nindantastav samarthyam tato duhkhataram nu kim . 36 .
तेरे वैरीलोग तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुःख और क्या होगा ? ॥ ३६ ॥
Your enemies will criticise your capabilities and say many unspeakable words to you; what could be more painful than that? ॥36॥
Your followers will speak many unspeakable words What could be more painful than blaming your power? 36 ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त बहुत-से हेतुओंको दिखलाकर युद्ध न करनेमें अनेक प्रकारकी हानियोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् युद्ध करनेमें दोनों तरहसे लाभ दिखलाते हुए अर्जुनको युद्धके लिये तैयार होनेकी आज्ञा देते हैं-
Relation-After showing many of the above reasons and describing the various types of losses in not fighting the war, now the Lord shows the benefits of fighting the war in both the ways and orders Arjun to get ready for the war-
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
hato va prapsyasi svargam jitva va bhokshyase mahim . tasmaduttishth kaunteya yuddhay krutanischayah . 37 .
या तो तू युद्धमेंमारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ॥ ३७ ॥
Either you will be killed in the war and attain heaven or you will win the battle and enjoy the kingdom of the earth. Therefore, O Arjuna, stand up determined for the war. ॥37॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त श्लोकमें भगवान्ने युद्धका फल राज्यसुख या स्वर्गकी प्राप्तितक बतलाया; किंतु अर्जुनने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, मैं तो त्रिलोकीके राज्यके लिये भी अपने कुलका नाश नहीं करना चाहता। अतः जिसे राज्यसुख और स्वर्गकी इच्छा न हो उसको किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्लोकमें बतलायी जाती है-
Relation- In the above verse, God has told that the result of war is attainment of royal pleasures or heaven; but Arjun had already said that forget about the kingdom of this world, I do not want to destroy my clan even for the kingdom of three worlds. Therefore, how should a person who does not desire royal pleasures and heaven fight the war, this thing is told in the next verse-
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
Sukhduhkhe same krutva labhalabhou jayaajayo .
Tato yuddhay yujyasva naivam papamvapsyasi . 38 .
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा ॥ ३८ ॥
Considering victory and defeat, gain and loss, pleasure and pain as the same, then get ready for the battle; by fighting in this manner you will not incur any sin. ॥38॥
सम्बन्ध – यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके सिद्धान्तसे तथा क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्धका औचित्य सिद्ध करके अर्जुनको समतापूर्वक युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी; अब कर्मयोगके सिद्धान्तसे युद्धका औचित्य बतलानेके लिये कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करते हैं –
Relationship – Even after proving the justification of war from the principle of Sankhyayoga and from the point of view of Kshatra Dharma, God ordered Arjun to fight the war equally; Now, to explain the justification of war from the principle of Karmayoga, let us introduce the description of Karmayoga –
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
Esha te̕bhihita sankhye buddhiryoge tvimam shrunu .
Buddhya yukto yaya parth karmabandham prahasyasi .39.
हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन – जिस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मोंके बन्धनको भलीभाँति त्याग देगा यानी सर्वथा नष्ट कर डालेगा ॥ ३९ ॥
Hey Parth! This wisdom was said for you about Gyan Yoga and now you listen to it about Karma Yoga – with the wisdom you have acquired, you will leave the bondage of karma completely, that is, you will completely destroy it. 39॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करके अब उसका रहस्यपूर्ण महत्त्व बतलाते हैं-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
Nehabhikramanasho̕sti pratyavayo na vidyate . Svalpamapyasya dharmasya trayate mahato bhayat . 40 .
इस कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी
नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है ॥ ४० ॥
In this Karmayoga, there is no destruction of the beginning i.e. the seed and on the contrary there is no defect in the result.
It is not, but even a little practice of this religion in the form of Karmayoga protects one from the great fear of birth and death. 40 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगका महत्व बतलाकर अब उसके आचरणकी विधि बतलानेके लिये पहले उस कर्मयोगमें परम आवश्यक जो सिद्ध कर्मयोगीकी निश्चयात्मिका स्थायी समबुद्धि है, उसका और कर्मयोगमें बाधक जो सकाम मनुष्योंकी भिन्न-भित्र बुद्धियाँ हैं, उनका भेद बतलाते हैं-
Relationship – Having explained the importance of Karmayoga in this way, now to explain the method of its conduct, let us first explain the difference between the determined and permanent equanimity of the determined soul of the accomplished Karmayoga, which is most essential in that Karmayoga, and the different intellects of successful people which hinder Karmayoga –
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥
vyavasayatmika buddhirekeh kurunandan . bahushakha hyanantaasch buddhayo̕vyavasayinam . 41 .
हे अर्जुन ! इस कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं ।॥ ४१ ॥
Arjun! In this Karmayoga, there is only one determined intellect; But the intellects of indecisive, fruitless people with unstable thoughts are certainly very diverse and infinite. 41 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगीके लिये अवश्य धारण करनेयोग्य निश्चयात्मिका बुद्धिका और त्याग करनेयोग्य सकाम मनुष्योंकी बुद्धियोंका स्वरूप बतलाकर अब तीन श्लोकोंमें सकामभावको त्याज्य बतलानेके लिये सकाम मनुष्योंके स्वभाव, सिद्धान्त और आचार-व्यवहारका वर्णन करते हैं-
Relationship – In this way, after describing the nature of the determined intellect which must be possessed by the Karmayogi and the intellect of the successful human beings which must be sacrificed, now in three verses, we describe the nature, principles and conduct of the successful human beings in order to show that the virtuous feeling can be sacrificed –
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।॥ ४२ ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
yamimam puspitam vacham pravadantyavipaschitah .
vedavadaratah parth nanyadastiti vadinah .. 42 .
kamatmanah svargapara janmakarmfalpradam .
kriyavisheshabahulam bhogaishvaryagatim prati . 43 .
bhogaishvaryaprasaktanam tayapahrutachetasam .
vyavasayatmika buddhih samadhau na vidhiyate . 44 .
हे अर्जुन ! जो भोगोंमें तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफलके प्रशंसक वेदवाक्योंमें प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्गसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है-ऐसा कहनेवाले हैं- वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणीको कहा करते हैं जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है, उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषोंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ॥ ४२-४३-४४ ॥
O Arjuna! Those who are absorbed in pleasures, those who are admirers of the fruits of actions, who love the words of the Vedas, who say in their mind that heaven is the only thing to be attained and that there is nothing better than heaven, those unwise people speak such flowery or pretentious speech which gives the fruit of actions in the form of birth and describes many different types of activities for the attainment of pleasures and prosperity, whose mind has been taken away by that speech, who are extremely attached to pleasures and prosperity, such men do not have a mind that has faith in God. ॥ 42-43-44 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त सकाम मनुष्योंमें निश्चयात्मिका बुद्धिके न होनेकी बात कहकर अब कर्मयोगका उपदेश देनेके उद्देश्यसे पहले भगवान् अर्जुनको उपर्युक्त भोग और ऐश्वर्यमें आसक्तिसे रहित होकर समभावसे सम्पन्न होनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Thus, after talking about the absence of determined mind among successful people who are attached to enjoyment and opulence, now before giving the advice of Karma Yoga, Lord Arjuna is asked to be devoid of attachment to the above mentioned enjoyment and opulence and become full of equanimity –
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
Traigunyavishaya veda nistraigunyo bhavarjun . Nirdvandvo nityasattvastho niryogakshem aatmavan . 45 .
हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकारसे तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले हैं; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनोंमें आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित योगक्षेमको न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो ।। ४५ ।।
Hey Arjun! The Vedas present all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas as mentioned above; Therefore, you should be free from attachment to those pleasures and their means, free from conflicts of joy and sorrow, not desirous of the yogakshema situated in the Supreme God and have an independent conscience. 45.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनको यह बात कही गयी कि सब वेद तीनों गुणोंके कार्यका प्रतिपादन करनेवाले हैं और तुम तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगोंमें और उनके साधनोंमें आसक्तिरहित हो जाओ । अब उसके फलस्वरूप ब्रह्मज्ञानका महत्त्व बतलाते हैं-
Relationship – In the previous verse, it was said to Arjun that all the Vedas are the ones that expound the functions of the three Gunas and you should become free from attachment to all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas. Now, as a result, let us explain the importance of Brahmagyan-
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
Yavanarth udapane sarvatah samplutodake .
Tavan sarveshu vedeshu brahmanasya vijanatah . 46 .
सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मको तत्त्वसे जाननेवाले ब्राह्मणका समस्त वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।॥ ४६ ॥
Once a reservoir full of all sides is attained, a Brahmin who knows Brahman in essence has as much need in all the Vedas as he has in a small reservoir. 46 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार समबुद्धिरूप कर्मयोगका और उसके फलका महत्त्व बतलाकर अब दो श्लोकोंमें भगवान् कर्मयोगका स्वरूप बतलाते हुए अर्जुनको कर्मयोगमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Having thus explained the importance of Karmayoga in the form of equanimity and its results, now in two verses, God explains the nature of Karmayoga and asks Arjun to perform the work by remaining situated in Karmayoga –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
Karmanyevaadhikaraste maa faleshu kadachan .
Maa karmfalaheturbhurma te sango̕stvakarmani . 47 .
तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ॥ ४७ ॥
You have the right only to perform your duty, never to its fruits. Therefore you should not be the cause of the fruits of your deeds and you should not be attached even to not performing your duty. ॥ 47 ॥
सम्बन्ध- उपर्युक्त श्लोकोंमें यह बात कही गयी कि तुमको न तो कर्मोंके फलका हेतु बनना चाहिये और न कर्म न करने में ही आसक्त होना चाहिये अर्थात् कर्मोंका त्याग भी नहीं करना चाहिये। इसपर यह जिज्ञासा होती है कि तो फिर किस प्रकार कर्म करना चाहिये ?
इसलिये भगवान् कहते हैं-
Relationship – It was said in the above verses that you should neither become an object of fruit of your actions nor should you become attached to not doing any actions, that is, you should not even give up your actions. There is a curiosity that then how should one act?
That’s why God says-
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
yogasthah kuru karmani sangam tyaktva dhananjaya . siddhyasiddhayoh samo bhutva samatvam yog uchyate . 48 .
हे धनञ्जय ! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धिवाला होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्यकर्मोंको कर, समत्व ही योग कहलाता है ॥ ४८ ॥
Hey Dhananjay! By renouncing attachment and being equally intelligent in success and failure, you become established in Yoga and perform your duties; equanimity is called yoga. 48 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगकी प्रक्रिया बतलाकर अब सकामभावकी निन्दा और समभावरूप बुद्धियोगका महत्त्व प्रकट करते हुए भगवान् अर्जुनको उसका आश्रय लेनेके लिये आज्ञा देते हैं-
Relationship – Having explained the process of Karmayoga in this way, now condemning the desire for success and revealing the importance of equanimity in the form of Buddhiyoga, Lord Arjuna is ordered to take refuge in it –
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
Duren hyavaram karm buddhiyogaddhananjaya .
Buddhau sharanamanvich krupanah falahetavah . 49 .
इस समत्वरूप बुद्धियोगसे सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धनञ्जय ! तू समबुद्धिमें ही रक्षाका उपाय ढूँढ़ अर्थात् बुद्धियोगका ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।॥ ४९ ॥
The work accomplished through this equanimous form of intellect is of very low grade. That’s why O Dhananjay! You should seek the means of protection only in having the same intelligence, that is, take shelter of the Yoga of the intellect only; Because those who become breadwinners are very poor. 49॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अर्जुनको समताका आश्रय लेनेकी आज्ञा देकर अब दो श्लोकोंमें उस समतारूप बुद्धिसे युक्त महापुरुषोंकी प्रशंसा करते हुए भगवान् अर्जुनको कर्मयोगका अनुष्ठान करनेकी पुनः आज्ञा देकर उसका फल बतलाते हैं-
Relationship – Having thus ordered Arjun to take shelter of equanimity, now in two verses praising the great men with equanimous intelligence, God again orders Arjun to perform the ritual of Karmayoga and explains its result –
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥
Buddhiyukto jahatih ubhe sukritduskrute .
Tasmadyogay yujyasva yogah karmasu kaushalam . 50 .
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनोंको इसी लोकमें त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योगमें लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मोंमें कुशलता
अर्थात् कर्मबन्धनसे छूटनेका उपाय है ।॥ ५० ॥
An equanimous person gives up both virtue and sin in this world, that is, he becomes free from them. With this you engage in equanimous yoga; This equanimity of yoga is the skill in action.
That is, it is a way to get free from the bondage of karma. 50 ॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
Karmajam buddhiyukta hi falam tyaktva manishinah . Janmabandhavinirmuktah padam gacchhantyanamayam . 51 .
क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो निर्विकार परम पदको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥
Because the wise people with equanimity, by renouncing the fruits arising from their actions, become free from the bondage of birth and attain the supreme position without any vices. 51 ॥
सम्बन्ध – भगवान्ने कर्मयोगके आचरणद्वारा अनामय पदकी प्राप्ति बतलायी; इसपर अर्जुनको यह जिज्ञासा हो सकती है कि अनामय परमपदकी प्राप्ति मुझे कब और कैसे होगी ? इसके लिये भगवान् दो श्लोकोंमें कहते हैं-
Relationship – God explained the attainment of Anamay Padak through the practice of Karmayoga; On this, Arjun may be curious that when and how will I attain the supreme state of Anamaya? For this, God says in two verses-
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
Yada te mohakalilam buddhirvyatitarishyati .
Tada gantaasi nirvedam shrotavyasya shrutasya ch . 52.
जिस कालमें तेरी बुद्धि मोहरूप दलदलको भलीभाँति पार कर जायगी, उस समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ॥ ५२ ॥
When your intellect completely crosses the swamp of delusion, then you will attain detachment from all the pleasures of this world and the next, that you have heard and will hear about. ॥ 52 ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
Shrutivipratipanna te yada sthasyati nischala . Samadhavachala buddhistada yogamvapsyasi . 53 .
भाँति-भाँतिके वचनोंको सुननेसे विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मामें अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा अर्थात् तेरा परमात्मासे नित्य संयो हो जायगा ।। ५३ ।।
When your mind, which has been distracted by listening to different words, becomes unmoving and steady in God, then you will attain Yoga, that is, you will be constantly united with God. 53.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने यह बात कही कि जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदलको सर्वथा पार कर जायगी तथा तुम इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंसे विरक्त हो जाओगे, तुम्हारी बुद्धि परमात्मामें निश्चल ठहर जायगी, तब तुम परमात्माको प्राप्त हो जाओगे। इसपर परमात्माको प्राप्त स्थितप्रज्ञ सिद्धयोगीके लक्षण और आचरण जाननेकी इच्छासे अर्जुन पूछते हैं-
Relationship – In the previous verses, God said that when your intellect will completely cross the swamp of illusion and you will become detached from all the pleasures of this world and the next world, your intellect will remain fixed in God, then you will attain God. On this, Arjun asks, desiring to know the characteristics and conduct of an intelligent Siddha Yogi who has attained the state of God:
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
Arjun uvach
Sthitapragnyasya ka bhasha samadhisthasya keshav . Sthitadhih kim prabhashet kimasit vrajet kim . 54 .
अर्जुन बोले- हे केशव ! समाधिमें स्थित परमात्माको प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुषका
क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चला है ? ॥ ५४ ॥
Arjun said- O Keshav! What are the signs of a man of steady intellect who has attained the Supreme Being in Samadhi? How does that man of steady intellect speak, sit and walk? ॥54॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनने परमात्माको प्राप्त हुए सिद्ध योगीके विषयमें चार बातें पूछी हैं; इन चारों बातोंका उत्तर भगवान्ने अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त दिया है, बीचमें प्रसङ्गवश दूसरी बातें भी कही हैं। इस अगले श्लोकमें अर्जुनके पहले प्रश्नका उत्तर संक्षेपमें देते हैं-
Relation – In the previous verse, Arjuna has asked four questions about a Siddha Yogi who has attained God; God has answered all these four questions till the end of the chapter, and in between he has also said other things as per the context. In this next verse, Arjuna’s first question is answered briefly-
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
Prajahati yada kaman sarvan parth manogatan . Aatmanyevatmana tushtah sthitapragnyastadochyate . 55 .
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे आत्मामें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।॥ ५५ ॥
Sri Bhagavan said- O Arjun! When a man completely abandons all the desires of his mind and remains satisfied with the self, then he is called a person of steady wisdom. ॥55॥
सम्बन्ध–स्थितप्रज्ञके विषयमें अर्जुनने चार बातें पूछी हैं, उनमेंसे पहला प्रश्न इतना व्यापक है कि उसके बादके तीनों प्रश्नोंका उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। इस दृष्टिसे तो अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त उस एक ही प्रश्नका उत्तर है; पर अन्य तीन प्रश्नोंका भेद समझनेके लि ऐसा समझना चाहिये कि अब दो श्लोकोंमें ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर दिया जाता है—
Relation- Arjun has asked four questions about sthitapragy, the first question out of which is so broad that the three questions after it are included in it. From this point of view, till the end of the chapter, there is an answer to that one question only; but to understand the difference between the other three questions, it should be understood that now the answer to the second question ‘how does a sthitapragy speak’ is given in two verses-
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
Duhkheshvanudvignamanah sukheshu vigataspruhah . Vitaragabhayakrodhah sthitadhirmuniruchyate . 56 .
दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता, सुखोंकी प्राप्तिमें जो सर्वथा निःस्पृ है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।। ५६॥
The one who does not get agitated in his mind after receiving sorrows, who is completely disinterested in getting pleasures and whose attachment, fear and anger have been destroyed, such a sage is said to have a stable mind. 56॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।॥ ५७ ॥
Yah sarvatranabhisnehastattatprapya shubhashubham . Nabhinandati na dveshti tasya pragnya pratishthita .. 57 .
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥ ५७ ॥
A man who is devoid of any affection towards anything and on receiving any good or bad thing neither gets pleased nor hates it, his intellect is stable. ॥ 57॥
सम्बन्ध – ‘स्थिरबुद्धिवाला योगी कैसे बोलता है ?’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर समाप्त करके अब भगवान् ‘वह कैसे बैठता है ?’ इस तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियोंका सर्वथा उसके वशमें हो जाना और आसक्तिसे रहित होकर अपने-अपने विषयोंसे उपरत हो जाना ही स्थितप्रज्ञ पुरुषका बैठना है-
Relationship – ‘How does a yogi with stable intellect speak?’ After finishing the answer to this second question, now God asks ‘How does he sit?’ While answering this third question, it is shown that the sitting position of a Sthitapragya Purusha is to be completely under the control of the senses of a Sthitapragya Purusha and to be free from attachment and to be above one’s own objects –
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
Yada sanharate chayam kurmo̕nganiv sarvashah . Indriyanindriyaarthebhyastasya pragnya pratishthita . 58 .
और कछुआ सब ओरसे अपने अङ्गोंको जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये) ॥ ५८ ॥
And just as a tortoise withdraws its limbs from all sides, similarly when a man withdraws his senses from the sense-objects in every way, then his intellect is stable (it should be considered so). ॥ 58॥
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञके बैठनेका प्रकार बतलाकर अब उसमें होनेवाली शङ्काओंका समाधान करनेके लिये अन्य प्रकारसे किये जानेवाले इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा स्थितप्रज्ञके इन्द्रियसंयमकी विलक्षणता दिखलाते हैं-
Relationship – While answering the third question in the previous verse, by telling the type of sitting of the Sthitapragya, now to solve the doubts arising in it, we show the uniqueness of the sense control of the Sthitapragya as compared to the other types of sense control –
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
vishaya vinivartante niraharasya dehinah . rasavarjam raso̕pyasya param drushtva nivartate . 59 .
इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी तो आसक्ति भी परमात्माका साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ॥ ५९ ॥
Even for a person who does not grasp the objects through the senses, only the objects are destroyed, but the attachment residing in them is not destroyed. Even the attachment of this person who is situated in wisdom goes away after realizing God. 59॥
धृतराष्ट्र उवाच
र्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १ ॥
Dharmakshetre kurukshetre samveta yuyutsavah . Maamkah pandavaschaiv kimakurvat sanjaya . 1 .
धृतराष्ट्र बोले- हे सञ्जय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित, युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? ॥ १॥
Dhritarashtra said, “O Sanjaya! What did my and Pandu’s sons, who were eager for war, do when they gathered at the holy land of Kurukshetra?” ॥1॥ध
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
शष्य
सञ्जय बोले- उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकष्ट दोणाचार्यके पास जाकर यह वचन कहा ॥ २ ॥
सम्बन्ध- द्रोणाचार्यके पास जाकर दुर्योधनने जो कुछ कहा, अब उसे बतलाते हैं-
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३ ॥
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये ।। ३ ।।
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाकी व्यूहरचना दिखलाकर अब दुर्योधन तीन श्लोकों द्वारा पाण्डव-सेनाके प्रमुख महारथियोंके नाम बतलाते हैं-
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४ ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्चशैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥५॥
युधाम् ——_–क्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६ ॥
इस सेनामें बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्धमें भीम और अर्जुनके समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मुनष्योंमें श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं ॥ ४-५-६ ॥
सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाके प्रधान योद्धाओंके नाम बतलाकर अब दुयोंधन आचार्य द्रोणसे अपनी सेनाके प्रधान योद्धाओंको जान लेनेके लिये अनुरोध करते हैं-
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम । नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते ॥ ७ ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्षमें भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारीके लिये मेरी सेनाके जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ ।। ७ ।।
सम्बन्ध-अब दो श्लोकोने दुयोंधन अपने पक्षके प्रधान वीरोंके नाम बतलाते हुए अन्यान्य वीरोके सहित उनकी प्रशंसा करते हैं
भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ ८ ॥
आप – द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा ॥ ८ ॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।। ९ ।।
और भी मेरे लिये जीवनकी आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित और सब के सब युद्धमें चतुर हैं ।॥ ९ ॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १० ॥
भीष्मपितामहद्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकारसे अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगोंकी यह सेना जीतनेमें सुगम है ॥ १० ॥
सम्बन्य–इस अकार भीष्मद्वारा संरक्षित अपनी सेनाको अजेय बताकर, अब दुर्योधन सब ओरसे भीष्मकी रक्षा करनेके लिये द्रोणाचार्य आदि समस्त महारथियोंसे अनुरोध करते हैं-
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥
इसलिये सब मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसन्देह भीष्मपितामहकी ही सब ओरसे रक्षा करें ॥ ११ ॥
सम्बन्ध – दुर्योधनके द्वारा अपने पक्षके महारथियोंकी विशेषरूपसे पितामह भीष्मकी प्रशंसा किये जानेका वर्णन सुनाकर अब सञ्जय उसके बादकी घटनाओंका वर्णन करते हैं-
तस्य संजनयन् हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥
कौरवोंमें वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्मने उस दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वरसे सिंहकी दहाड़के समान गरजकर शङ्ख बजाया ॥ १२ ॥
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥
इसके पश्चात् शङ्ख और नगारे तथा ढोल, मृदङ्ग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही उठे । उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – धृतराष्ट्रने पूछा था कि युद्धके लिये एकत्र होनेके बाद मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया, इसके उत्तरमें सञ्जयने अबतक धृतराष्ट्रके पक्षवालोंकी बात सुनायी; अब पाण्डवोंने क्या किया, उसे पाँच श्लोकोंमें बतलाते हैं-
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥
इसके अनन्तर सफेद घोड़ोंसे युक्त उत्तम रथमें बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुनने भी अलौकिक शङ्ख बजाये ॥ १४ ॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्डूं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥
श्रीकृष्ण महाराजने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुनने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्र नामक महाशङ्ख बजाया ॥ १५ ॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शङ्ख बजाये ॥ १६ ॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ १७ ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ १८ ॥
श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और इत- अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु – इन सभीने, हे राजन् ! सब ओरसे अलग-अलग शङ्ख बजाये ॥ १७-१८ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके पश्चात् पाण्डव-सेनाके अन्यान्य शूरवीरोंद्वारा सब ओर शङ्ख बजाये जानेकी बात कहकर अब उस शङ्खध्वनिका क्या परिणाम हुआ ? उसे सञ्जय बतलाते हैं-
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९ ॥
और उस भयानक शब्दने आकाश और पृथ्वीको भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रोंके यानी आपके पक्षवालोंके हृदय विदीर्ण कर दिये ॥ १९ ॥
सम्बन्ध-पाण्डवोंकी शङ्खध्वनिसे कौरववीरोंके व्यथित होनेका वर्णन करके, अब चार श्लोकोंमें भगवान् श्रीकृष्णके प्रति कहे हुए अर्जुनके उत्साहपूर्ण वचनोंका वर्णन किया जाता है-
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ २० ॥ हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुनने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको उस शस्त्र चलनेकी तैयारीके समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराजसे यह देखकर, वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ॥ २०-२१ ॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥
और जबतक कि मैं युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओंको भल प्रकार देख लूँ कि इस युद्धरूप व्यापारमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना योग्य है, तबतक उसे खड़ा रखिये ।। २२ ॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥
दुर्बुद्धि दुर्योधनका युद्धमें हित चाहनेवाले जो-जो ये राजालोग इस सेनामें आये हैं, इन युद्ध करनेवालोंको मैं देखूँगा ॥ २३ ॥
सम्बन्ध-अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर भगवान्ने क्या किया ? अब दो श्लोकोंमें सञ्जय उसका वर्णन करते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥ २५ ॥
सञ्जय बोले- हे धृतराष्ट्र ! अर्जुनद्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्रने दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणाचार्यके सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने उत्तम रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्धके लिये जुटे हुए इन कौरवोंको देख ॥ २४-२५ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण———सुनकर अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं–
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान् भ्रातून पुत्रान् पौत्रान् सर्वीस्तथा ॥ २६ ॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
इसके बाद पृथापुत्र अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित ताऊ-चाचोंको, दादों-परदादोंको, गुरुओंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुहृदोंको भी देखा ॥ २६ और २७ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-इस प्रकार सबको देखनेके बाद अर्जुनने क्या किया ? अब उसे बतलाते हैं-
तान् समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ २७ ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओंको देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणासे युक्त होकर शोक करते हुए यह बचन बोले ॥ २७ वेंका उत्तरार्ध और २८ वेंका पूर्वार्ध ।।
सम्बन्ध-बन्धुस्नेहके कारण अर्जुनकी कैसी स्थिति हुई, अब ढाई श्लोकोंमें अर्जुन स्वयं उसका वर्णन करते हैं-
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ २८ ॥ सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥ २९ ॥
अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इस स्वजन समुदायको देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीरमें कम्प एवं होमाञ्च हो रहा है ॥ २८वेंका उत्तरार्ध और २९ ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३० ॥
हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहनेको भी समर्थ नहीं हूँ ॥ ३० ॥
सम्बन्ध—अपनी विषादयुक्त स्थितिका वर्णन करके अब अर्जुन अपने विचारोंके अनुसार युद्धका अनौचित्य सिद्ध करते हैं-
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥
हे केशव ! मैं लक्षणोंको भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्धमें स्वजन-समुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता ॥ ३१ ॥
सम्बन्ध – अर्जुनने यह कहा कि स्वजनोंको मारनेसे किसी प्रकारका भी हित होनेकी सम्भावना नहीं है, अब फिर वे उसीकी पुष्टि करते हैं-
न काले विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥
हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही । हे गोविन्द ! ह ऐसे राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगोंसे और जीवनसे भी क्या लाभ है ? ॥ ३२ ॥
सम्बन्ध – अब अर्जुन स्वजनवधसे मिलनेवाले राज्य-भोगादिको न चाहनेका कारण दिखलाते हैं-
येषामर्थे काङ्क्षित्तं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥
हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको त्यागकर युद्धमें खड़े हैं ॥ ३३ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार युद्धका अनौचित्य दिखलाकर अब अर्जुन युद्धमें मरनेके लिये तैयार होकर आये हुए स्वजन-समुदायमें कौन-कौन है उनका संक्षेप में वर्णन करते हैं?
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।। ३४ ।।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ।॥ ३४ ॥
सम्बन्ध – सेनामें उपस्थित शूरवीरोंके साथ अपना सम्बन्ध बतलाकर अब अर्जुन किसी भी हेतुसे इन्हें मारनेमें अपनी अनिच्छा प्रकट करते हैं-
एतान्न हन्तुमिच्छामि प्घ्नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ ३५ ॥
हे मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वीके लिये तो कहना ही क्या है ? ॥ ३५ ॥
सम्बन्ध-यहाँ यदि यह पूछा जाय कि आप त्रिलोकीके राज्यके लिये भी उनको मारना क्यों नहीं चाहते, तो इसपर अर्जुन अपने सम्बन्धियोंको मारनेमें लाभका अभाव और पापकी सम्भावना बतलाकर अपनी बातको पुष्ट करते हैं-
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियोंको मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ॥ ३६ ॥
सम्बन्ध – स्वजनोंको मारना सब प्रकारसे हानिकारक बतलाकर अब अर्जुन अपना मत प्रकट कर रहे हैं-
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥
अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्बको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ॥ ३७ ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि कुटुम्ब-नाशसे होनेवाला दोष तो दोनोंके लिये समान ही है; फिर यदि इस दोषपर विचार करके दुर्योधनादि युद्धसे नहीं हटते, तब तुम ही इतना विचार क्यों करते हो ? अर्जुन दो श्लोकोंमें इस प्रश्नका उत्तर देते हैं-
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन
॥ ३९ ॥
यद्यपि लोभसे भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको और मित्रोंसे विरोध करनेमें पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको जाननेवाले हमलोगोंको इस पापसे हटनेके लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये ॥ ३८-३९ ॥
सम्बन्ध-कुलके नाशसे कौन-कौन-से दोष उत्पन्न होते हैं, इसपर अर्जुन कहते हैं-
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।॥ ४० ॥
कुलके नाशसे सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्मके नाश हो जानेपर सम्पूर्ण कुल् पाप भी बहुत फैल जाता है ॥ ४० ॥
सम्बय-इस प्रकार जब समस्त कुलमें पाप फैल जाता है तब क्या होता है, अर्जुन अब उसे बतलाते हैं—
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४१ ॥
हे कृष्ण ! पापके अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वाष्र्णेय ! स्त्रियोंके दूषित हो जानेपर वर्णसङ्कर उत्पन्न होता है ॥ ४१ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्कर सन्तानके उत्पन्न होनेसे क्या-क्या हानियाँ होती हैं, अर्जुन अब उन्हें बतलाते हैं-
सङ्करो नरकायैव कुलप्घ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४२ ॥
वर्णसङ्कर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं ॥ ४२ ॥
सम्बन्ध-वर्णसङ्करकारक दोषोंसे क्या हानि होती है, अब उसे बतलाते हैं-
दोषैरेतैः कुलप्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४३ ॥
इन वर्णसङ्करकारक दोषोंसे कुलघातियोंके सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।॥ ४३ ॥
सामान्या- कुलधाम’ और ‘जातिधर्म’ के नाशसे क्या हानि है; अब इसपर कहते हैं-
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४४ ।।
हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्योंका अनिश्चित कालतक नरकमे वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।॥ ४४ ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार स्वजन-वधसे होनेवाले महान् अनर्थका वर्णन करके अब अर्जुन युद्धके उद्योगरूप अपने कृत्यपर शोक प्रकट करते हैं-
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥45॥
हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करनेको तैयार हो गये हैं, जो राज्य पौर सुखके लोभसे स्वजनोंको मारनेके लिये उद्यत हो गये हैं ।॥ ४५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार पश्चात्ताप करनेके बाद अब अर्जुन अपना निर्णय सुनाते हैं-
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाण । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६ ॥
यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवालेको शस्त्र हाथमें लिये हुए धृतराष्ट्रके पुत्र रणमें मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ॥ ४६ ॥
सम्बन्ध – भगवान् श्रीकृष्णसे इतनी बात कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया, इस जिज्ञासापर अर्जुनकी स्थिति बतलाते हुए सञ्जय कहते हैं-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४७ ॥
सञ्जय बोले – रणभूमिमें शोकसे उद्विग्न मनवाला अजून इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुषको त्यागकर रथके पिछले भागमें बैठ गया ॥ ४७ ॥
★★★★★★★
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिपर जो उपर्युक्त पुष्पिका दी गयी है, इसमें श्रीमद्भगवद्गीताका माहात्य और प्रभाव ही प्रकट किया गया है। ‘ॐ तत्सत्’ भगवान्के पवित्र नाम हैं (१७।२३), स्वयं श्रीभगवान्के द्वारा गायी जानेके कारण इसका नाम ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है, इसमें उपनिषदोंका सारतत्व संगृहीत है और यह स्वयं भी उपनिषद् है, इससे इसको ‘उपनिषद्’ कहा गया है, निर्गुण-निराकार परमात्माके परम तत्त्वका साक्षात्कार करानेवाली होनेके कारण इसका नाम ‘ब्रह्मविद्या’ है और जिस कर्मयोगका योगके नामसे वर्णन हुआ है, उस निष्कामभावपूर्ण कर्मयोगका तत्त्व बतलानेवाली होनेसे इसका नाम ‘योगशास्त्र’ है। यह साक्षात् परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण और भक्तवर अर्जुनका संवाद है और इसके प्रत्येक अध्यायमें परमात्माको प्राप्त करानेवाले योगका वर्णन है, इसीसे इसके लिये
‘श्रीकृष्णार्जुनसंवादे…..योगो नाम’ कहा गया है।
★★★★★★★
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दूसरा अध्याय
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सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १ ॥
सञ्जय बोले- उस प्रकार करुणासे व्याप्त और आँसुओंसे पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तुझे इस असमयमें यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ ?
योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित है, न स्वर्गको देनेवाला है और न कीर्तिको
करनेवाला ही है ॥ २ ॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ ३ ॥
इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्याग कर युद्धके लिये खड़ा हो जा ॥ ३ ॥
सम्बन्ध – भगवान्के इस प्रकार कहनेपर गुरुजनोंके साथ किये जानेवाले युद्धको अनुचित सिद्ध करते हुए दो श्लोकोंमें अर्जुन अपना निश्चय प्रकट करते हैं-
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
अर्जुन बोले- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमिमें किस प्रकार बाणोंसे भीष्मपितामह और द्रोणाचार्यके विरुद्ध लड्रॅगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥ ४ ॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥
इसलिये इन महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर मैं इस लोकमें भिक्षाका अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ। क्योंकि गुरुजनोंको मारकर भी इस लोकमें रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगोंको ही तो भोगूँगा ॥ ५ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को संतोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गई। तब वह फिर कहने लगे।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। याचेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना – इन दोनोंमेंसे कौन-स श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे । और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्रके पुत्र हमारे मुकाबलेमे खड़े हैं।
॥ ६ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्तव्यका निर्णय करनेमें अपनी असमर्थता प्रकट करनेके बाद अब अर्जुन भगवान्की शरण ग्रहण करके अपना निश्चित कर्तव्य बतलानेके लिये उनसे प्रार्थना करते हैं-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥
इसलिये कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; हुआ क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ॥ ७ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार शिक्षा देनेके लिये भगवान्से प्रार्थना करके अब अर्जुन उस प्रार्थनाका हेतु बतलाते हुए अपने विचारोंको प्रकटकरते हैं-
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥
क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्यको और देवताओंके स्वामीपनेको प्राप्त होकर भी मैं उस उपायको नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियोंके सुखानेवाले शोकको दूर कर सकें ॥ ८ ॥
सम्बन्ध -इसके बाद अर्जुनने क्या किया, यह बतलाया जाता है-
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥
सञ्जय बोले- हे राजन् ! निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान्से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ॥ ९ ॥
सामान्य-इस प्रकार अर्जुनके चुप हो जानेपर भगवान् श्रीकृष्णने क्या किया, इस जिज्ञासापर सञ्जय कहते हैं-
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए-से यह वचन बोले ॥ १० ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त प्रकारसे चिन्तामग्न अर्जुनने जब भगवान्के शरण होकर अपने महान् शोककी निवृत्तिका उपाय पूछा और यह कहा कि इस लोक और परलोकका राज्यसुख इस शोककी निवृत्तिका उपाय नहीं है, तब अर्जुनको अधिकारी समझकर उसके शोक और मोहको सदाके लिये नष्ट करनेके उद्देश्यसे भगवान् पहले नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनपूर्वक सांख्ययोगकी दृष्टिसे भी युद्ध करना कर्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्यनिष्ठाका वर्णन करते हैं-
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके से वचनोंको कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ॥ ११ ॥
सम्बन्ध-
पूर्वलोकयाने असे यह बात कही कि जिन भीषादि खजनोंके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके कभी तक करना किस कारणसे उचित नहीं है। अतः भगवान् आमाकी नित्यताका प्रतिपादन करके आमदृटिसे उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ।।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग न थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥ १२ ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन करके अब उसकी निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए आत्माके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही
अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥ १३ ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारता प्रतिपादन करके उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा नित्य और निर्विकार हो तो भी बन्धु-बान्धवादिके साथ होनेवाले संयोग-वियोगादिसे सुख-दुःखादिका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, अतएव शोक हुए बिना कैसे रह सकता है ? इसपर भगवान् सब प्रकारके संयोग-वियोगादिको अनित्य बतलाकर उनको सहन करनेकी आज्ञा देते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ॥ १४ ॥
सम्बन्ध – इन सबको सहन करनेसे
क्या लाभ होगा ? इस जिज्ञासापर कहते हैं-
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है ॥ १५ ॥
O best of men, whom these things do not disturb? He who is steadfast in equal pain and pleasure is fit for immortality. 15 ॥
सरम्बाय-बारहवें और तेरहवें श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन किया तथा चौदहवें श्लोकमें इन्द्रियोंके साथ विषयोंके संयोगोंको अनित्य बतलाया, किंतु आत्मा क्यों नित्य हैं और ये संयोग क्यों अनित्य हैं ? इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया, अतएव इस श्लोकमें भगवान् नित्य और अनित्य वस्तुके विवेचनकी रीति बतलानेके लिये दोनोंके लक्षण बतलाते हैं
• दूसरा अध्याय ७१
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
nasato vidyate bhavo nabhavo vidyate satah ubhayorapi drushto̕ntastvanayostattvadarshibhih . 16 .
असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत्का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है ॥ १६ ॥
There is no existence of the unreal and no non-existence of the real. Those who see the Absolute Truth have seen the difference between the two. 16 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें जिस ‘सत्’ तत्त्वके लिये यह कहा गया है कि ‘उसका अभाव नहीं है’, वह ‘सत्’ तत्त्व क्या है- इस जिज्ञासापर कहते हैं-
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
avinashi tu tadviddhi yen sarvamidam tatam . vinashamavyayasyasya na kaschitkartumarhati . 17 .
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्-दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ १७ ॥
But know that which is indestructible, by which all this is pervaded. No one can destroy this inexhaustible Supreme Being. 17 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार ‘सत्’ तत्त्वकी व्याख्या हो जानेके अनन्तर पूर्वोक्त ‘असत्’ वस्तु क्या है, इस जिज्ञासापर कहते हैं—
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥
Antavant ime dehaa nityasyoktah shareerinah . anashino̕prameyasya tasmadyudhyasva bharat . 18 .
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे है।
गये इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ॥ १८ ॥
These bodies are finite, and are said to be embodied in the eternal. O descendant of Bharata, fight against the indestructible and immeasurable Lord. 18 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें भगवान्ने आत्माकी नित्यता और निर्विकारताका प्रतिपादन करके अर्जुनको युद्धके लिये आज्ञा दी, किंतु अर्जुनने जो यह बात कही थी कि ‘मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमकर होगा’ उसका स्पष्ट समाधान नहीं किया। अतः अगले श्लोकोंमें ‘आत्माको मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं-
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥*
ya enam vetti hantaram yaschainam manyate hatam . ubhou tau na vijanito nayam hanti na hanyate . 19 .
जो इस आत्माको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है ॥ १९ ॥
Whoever knows him to be a murderer and whoever thinks he is killed He who does not recognize both of them neither kills nor is killed. 19 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें यह कहा कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसपर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा किसीके द्वारा नहीं मारा जाता, इसमें क्या कारण है ? इसके उत्तरमें भगवान् आत्मामें सब प्रकारके विकारोंका अभाव बतलाते हुए उसके स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥
Na jayate mriyate va kadachinnayam bhutva bhavita va na bhuyah . ajo nityah shashvato̕yam purano na hanyate hanyamane sharire . 20 .
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ॥ २० ॥
He is never born or dies, nor has He ever been, nor will He ever be again. This Supreme Being is unborn, eternal, everlasting and ancient. When the body is killed, it is not killed. 20 ॥
सम्बन्ध-उऔसवे श्लोकये भगवान्ने यह बात कही कि आत्या न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है। उसके अनुसार बीसवें श्लोकमें उसे विकारहित बतलाकर इस बातका प्रतिपादन किया कि वह क्यों नहीं मारा जाता। अब अगले श्लोकमें यह बतलाते हैं कि वह किसीको मारता क्यों नहीं ? –
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
Vedavinashinam nityam ya enamajamavyayam . katham sa purushah parth kam ghatayati hanti kam . 21 .
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्माको नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ॥ २१ ॥
He who knows this unborn and inexhaustible Veda is eternally indestructible. How, O son of Pṛthā, does that person kill whom? Whom does he kill? 21 ॥
सम्बन्ध – यहाँ यह शङ्का होती है कि आत्मा नित्य और अविनाशी है—उसका कभी नाश नहीं हो सकता, अतः उसके लिये शोक करना नहीं बन सकता और शरीर नाशवान् है – उसका नाश होना अवश्यम्भावी है, अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता – यह सर्वथा ठीक है। किंतु आत्माका जो एक शरीरसे सम्बन्ध छूटकर दूसरे शरीरसे सम्बन्ध होता है, उसमें उसे अत्यन्त कष्ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है? इसपर कहते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥
Vasansi jirnani yatha vihay navani grunati naro̕parani . tatha sharirani vihay jirnanyanyani sanyati navani dehi . 22 .
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ॥ २२ ॥
Just as a man puts off his old clothes and puts on new ones, Similarly, the embodied soul gives up his old body and assumes new ones. 22 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार एक शरीरसे दूसरे शरीरके प्राप्त होनेमें शोक करना अनुचित सिद्ध करके, अब भगवान् आत्माका स्वरूप दुर्विज्ञेय होनेके कारण पुनः तीन श्लोकोंद्वारा प्रकारान्तरसे उसकी नित्यता, निराकारता और निर्विकारताका प्रतिपादन करते हुए उसके विनाशकी
आशङ्कासे शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
Nainam chhindanti shastrani nainam dahati pavakah . na chainam cledayantyapo na shoshayati marutah . 23 . आत्याको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।। २३ ।।
Weapons cannot cut Him, nor can fire burn Him. It is not wetted by water nor dried by the wind 23 ॥
अच्छेद्यो ऽयमदाह्यो ऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
achedyo ̕yamadahyo ̕yamakledyo̕shoshya eva ch .
nityah sarvagatah sthanurachalo̕yam sanatanah . 24 .
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ॥ २४ ॥
This body can be cut, burned, washed or dried.
This Supreme Being is eternal omnipresent stable immovable 24 ॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्ते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥
Avyakto̕yamachintyo̕yamvikaryo̕yamuchate .
tasmadevam viditvainam nanushochitumarhasi . 25 .
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन ! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे जानकर तू शोक करनेके योग्य नहीं है
अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ॥ २५ ॥
This is called the unmanifest, the unthinkable, the incorruptible.
Therefore, knowing this, you should not lament. 25 ॥
सम्बन्ध—उपर्युक्त श्लोकोंमें भगवान्ने आत्माको अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया: अब दो श्लोकोंद्वारा आत्माको औपचारिकरूपसे जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है-
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
Ath chainam nityajatam nityam va manyase mrutam .
Tathapi tvam mahabaho naivam shochitumarhasi . 26 .
किंतु यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २६ ॥
And yet you think that He is eternally born or eternally dead.
Yet, O mighty-armed one, you should not lament in this way. 26 ॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥
Jatasya hi dhruvo mrutyurdhruvam janm mrutasya ch .
Tasmadapariharye̕rthe na tvam shochitumarhasi . 27 .
क्योंकि इस मान्यताके अनुसार जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ २७ ॥
Death is certain for one who is born, and birth is certain for one who is dead.
Therefore, you should not lament for something that is inevitable. 27 ॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंद्वारा आत्माको नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, उन दोनोंके से ही आत्माके लिये शोक करना नहीं बनता – यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोकमें यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियोंके शरीरोंको उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता –
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥
Avyaktaadini bhutani vyaktamadhyani bharat . avyaktanidhananyev tatra ka paridevana . 28 .
अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है ? ॥ २८ ॥
Arjuna! All beings were invisible before birth and will become invisible after death too; they are visible only in between; then what is there to mourn in such a situation? ॥28॥
सम्बन्ध- आत्मतत्त्व अत्यन्त दुबर्बोध होनेके कारण उसे समझानेके लिये भगवान्ने उपर्युक्त श्लोकोंद्वारा भिन्न-भिन्न प्रकारसे उसके स्वरूपका वर्णन किया: अब अगले श्लोकमें उस आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका निरूपण करते हैं-
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥*
Aashcharyavatpashyati kaschidenamaascharyavadvadati tathaiv chanyah . Aashcharyavachainamanyah shrunoti shrutvapyenam ved na chaiv kaschit . 29 .
कोई एक महापुरुष ही इस आत्माको आश्चर्यकी भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्वका आश्चर्यकी भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्यकी भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ।। २९॥
Only one great person sees this soul as a wonder and similarly, only another great person describes its essence as a wonder and only another authoritative person hears about it as a wonder and some people do not know it even after hearing it. .२९.
सम्बन्ध-इस प्रकार आत्मतत्त्वके दर्शन, वर्णन और श्रवणकी अलौकिकता और दुर्लभताका प्रतिपादन करके अब, ‘आत्मा नित्य ही अवध्य है; अतः किसी भी प्राणीके लिये शोक करना उचित नहीं है’ – यह बतलाते हुए भगवान् सांख्ययोगके प्रकरणका उपसंहार करते हैं-
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥
Dehi nityamavadhyo̕yam dehe sarvasya bharat . Tasmatsarvani bhutani na tvam shochitumarhasi . 30 .
हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीरोंमें सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥ ३० ॥
Hey Arjun! This soul is always present in everyone’s bodies. For this reason you are not worthy of mourning for all living beings. 30 ॥
सम्बन्ध-यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके अनुसार अनेक युक्तियोंद्वारा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सम, निर्विकार और अकर्ता आत्माके एकत्व, नित्यत्व, अविनाशित्व आदिका प्रतिपादन करके तथा शरीरोंको विनाशशील बतलाकर आत्माके या शरीरोंके लिये अथवा शरीर और आत्माके वियोगके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया। साथ ही प्रसङ्गवश आत्माको जन्मने-मरनेवाला माननेपर भी शोक
करनेके अनौचित्यका प्रतिपादन किया और अर्जुनको युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी। अब सात श्लोकोंद्वारा क्षात्रधर्मके अनुसार शोक करना अनुचित सिद्ध करते हुए अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
Relationship – Even according to Sankhyayoga, God proved it inappropriate to mourn for the soul or the bodies or for the separation of the body and the soul by propounding the oneness, eternality, indestructibility etc. of the eternal, pure, Buddha, equal, disorderless and non-doing soul and by declaring the bodies to be perishable through many strategies. And also, incidentally, there is sorrow for considering the soul to be born and dying. Propounded the impropriety of doing so and ordered Arjun to fight. Now, through seven verses, Arjuna is encouraged for war by proving that it is inappropriate to mourn as per Kshatradharma –
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
Svadharmamapi chavekshya na vikampitumarhasi . Dharmyaddhi yuddhachreyo̕nyatkshatriyasya na vidyate . 31 .
तथा अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेयोग्य नहीं है यानी तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ॥ ३१॥
And even after looking at your Dharma, you are not worthy of being fearful, that is, you should not be afraid; because for a Kshatriya there is no other welfare duty greater than a Dharma-based war. ॥ 31॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
Yadracchhaya chopapannam svargadvarampavrutam . Sukhinah kshatriyah parth labhante yuddhmidrsham . 32 .
हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं ॥ ३२ ॥
O Partha! Only the fortunate Kshatriyas get to experience this type of war which is like the gates of heaven which are automatically attained and open. ॥ 32॥
सम्बन्ध – इस प्रकार धर्ममय युद्ध करनेमें लाभ दिखलानेके बाद अब उसे न करनेमें हानि दिखलाते हुए भगवान् अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हैं-
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
ath chettvamimam dharmya sangramam na karishyasi . tatah svadharm kirti ch hitva papamvapsyasi . 33 .
किंतु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्धको नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा ॥ ३३ ॥
But if you do not fight this righteous war, you will lose your religious principles and glory and will commit sin. ॥ 33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। ३४ ॥
Akirtim chapi bhutani kathayishyanti te̕vyayam .
Sambhavitasya chakirtirmaranadatirichyate .. 34 .
तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्तिका भी कथन करेंगे और माननीय पुरुषके लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है ॥ ३४ ॥
People will tell you about your infamous deeds, which are inexhaustible.
And the fame of one who is respected is more precious than death. 34 ॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
Bhayadranaduparatam mansyante tvaam maharathah . Yesham ch tvam bahumato bhutva yasyasi laghavam . 35 .
और जिनकी दृष्टिमें तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुताको प्राप्त होगा, वे महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे ॥ ३५ ॥
And those great warriors in whose eyes you were once held in high esteem, but now you will be treated as insignificant, will think that you have withdrawn from the battle out of fear. ॥ 35॥
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
Avachyavadanshch bahun vadishyanti tavahitah . Nindantastav samarthyam tato duhkhataram nu kim . 36 .
तेरे वैरीलोग तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुःख और क्या होगा ? ॥ ३६ ॥
Your enemies will criticise your capabilities and say many unspeakable words to you; what could be more painful than that? ॥36॥
Your followers will speak many unspeakable words What could be more painful than blaming your power? 36 ॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त बहुत-से हेतुओंको दिखलाकर युद्ध न करनेमें अनेक प्रकारकी हानियोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् युद्ध करनेमें दोनों तरहसे लाभ दिखलाते हुए अर्जुनको युद्धके लिये तैयार होनेकी आज्ञा देते हैं-
Relation-After showing many of the above reasons and describing the various types of losses in not fighting the war, now the Lord shows the benefits of fighting the war in both the ways and orders Arjun to get ready for the war-
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
hato va prapsyasi svargam jitva va bhokshyase mahim . tasmaduttishth kaunteya yuddhay krutanischayah . 37 .
या तो तू युद्धमेंमारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ॥ ३७ ॥
Either you will be killed in the war and attain heaven or you will win the battle and enjoy the kingdom of the earth. Therefore, O Arjuna, stand up determined for the war. ॥37॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त श्लोकमें भगवान्ने युद्धका फल राज्यसुख या स्वर्गकी प्राप्तितक बतलाया; किंतु अर्जुनने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, मैं तो त्रिलोकीके राज्यके लिये भी अपने कुलका नाश नहीं करना चाहता। अतः जिसे राज्यसुख और स्वर्गकी इच्छा न हो उसको किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्लोकमें बतलायी जाती है-
Relation- In the above verse, God has told that the result of war is attainment of royal pleasures or heaven; but Arjun had already said that forget about the kingdom of this world, I do not want to destroy my clan even for the kingdom of three worlds. Therefore, how should a person who does not desire royal pleasures and heaven fight the war, this thing is told in the next verse-
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
Sukhduhkhe same krutva labhalabhou jayaajayo .
Tato yuddhay yujyasva naivam papamvapsyasi . 38 .
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा ॥ ३८ ॥
Considering victory and defeat, gain and loss, pleasure and pain as the same, then get ready for the battle; by fighting in this manner you will not incur any sin. ॥38॥
सम्बन्ध – यहाँतक भगवान्ने सांख्ययोगके सिद्धान्तसे तथा क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्धका औचित्य सिद्ध करके अर्जुनको समतापूर्वक युद्ध करनेके लिये आज्ञा दी; अब कर्मयोगके सिद्धान्तसे युद्धका औचित्य बतलानेके लिये कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करते हैं –
Relationship – Even after proving the justification of war from the principle of Sankhyayoga and from the point of view of Kshatra Dharma, God ordered Arjun to fight the war equally; Now, to explain the justification of war from the principle of Karmayoga, let us introduce the description of Karmayoga –
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
Esha te̕bhihita sankhye buddhiryoge tvimam shrunu .
Buddhya yukto yaya parth karmabandham prahasyasi .39.
हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन – जिस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मोंके बन्धनको भलीभाँति त्याग देगा यानी सर्वथा नष्ट कर डालेगा ॥ ३९ ॥
Hey Parth! This wisdom was said for you about Gyan Yoga and now you listen to it about Karma Yoga – with the wisdom you have acquired, you will leave the bondage of karma completely, that is, you will completely destroy it. 39॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगके वर्णनकी प्रस्तावना करके अब उसका रहस्यपूर्ण महत्त्व बतलाते हैं-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
Nehabhikramanasho̕sti pratyavayo na vidyate . Svalpamapyasya dharmasya trayate mahato bhayat . 40 .
इस कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी
नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है ॥ ४० ॥
In this Karmayoga, there is no destruction of the beginning i.e. the seed and on the contrary there is no defect in the result.
It is not, but even a little practice of this religion in the form of Karmayoga protects one from the great fear of birth and death. 40 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार कर्मयोगका महत्व बतलाकर अब उसके आचरणकी विधि बतलानेके लिये पहले उस कर्मयोगमें परम आवश्यक जो सिद्ध कर्मयोगीकी निश्चयात्मिका स्थायी समबुद्धि है, उसका और कर्मयोगमें बाधक जो सकाम मनुष्योंकी भिन्न-भित्र बुद्धियाँ हैं, उनका भेद बतलाते हैं-
Relationship – Having explained the importance of Karmayoga in this way, now to explain the method of its conduct, let us first explain the difference between the determined and permanent equanimity of the determined soul of the accomplished Karmayoga, which is most essential in that Karmayoga, and the different intellects of successful people which hinder Karmayoga –
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥
vyavasayatmika buddhirekeh kurunandan . bahushakha hyanantaasch buddhayo̕vyavasayinam . 41 .
हे अर्जुन ! इस कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं ।॥ ४१ ॥
Arjun! In this Karmayoga, there is only one determined intellect; But the intellects of indecisive, fruitless people with unstable thoughts are certainly very diverse and infinite. 41 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगीके लिये अवश्य धारण करनेयोग्य निश्चयात्मिका बुद्धिका और त्याग करनेयोग्य सकाम मनुष्योंकी बुद्धियोंका स्वरूप बतलाकर अब तीन श्लोकोंमें सकामभावको त्याज्य बतलानेके लिये सकाम मनुष्योंके स्वभाव, सिद्धान्त और आचार-व्यवहारका वर्णन करते हैं-
Relationship – In this way, after describing the nature of the determined intellect which must be possessed by the Karmayogi and the intellect of the successful human beings which must be sacrificed, now in three verses, we describe the nature, principles and conduct of the successful human beings in order to show that the virtuous feeling can be sacrificed –
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।॥ ४२ ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
yamimam puspitam vacham pravadantyavipaschitah .
vedavadaratah parth nanyadastiti vadinah .. 42 .
kamatmanah svargapara janmakarmfalpradam .
kriyavisheshabahulam bhogaishvaryagatim prati . 43 .
bhogaishvaryaprasaktanam tayapahrutachetasam .
vyavasayatmika buddhih samadhau na vidhiyate . 44 .
हे अर्जुन ! जो भोगोंमें तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफलके प्रशंसक वेदवाक्योंमें प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्गसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है-ऐसा कहनेवाले हैं- वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणीको कहा करते हैं जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है, उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषोंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ॥ ४२-४३-४४ ॥
O Arjuna! Those who are absorbed in pleasures, those who are admirers of the fruits of actions, who love the words of the Vedas, who say in their mind that heaven is the only thing to be attained and that there is nothing better than heaven, those unwise people speak such flowery or pretentious speech which gives the fruit of actions in the form of birth and describes many different types of activities for the attainment of pleasures and prosperity, whose mind has been taken away by that speech, who are extremely attached to pleasures and prosperity, such men do not have a mind that has faith in God. ॥ 42-43-44 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त सकाम मनुष्योंमें निश्चयात्मिका बुद्धिके न होनेकी बात कहकर अब कर्मयोगका उपदेश देनेके उद्देश्यसे पहले भगवान् अर्जुनको उपर्युक्त भोग और ऐश्वर्यमें आसक्तिसे रहित होकर समभावसे सम्पन्न होनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Thus, after talking about the absence of determined mind among successful people who are attached to enjoyment and opulence, now before giving the advice of Karma Yoga, Lord Arjuna is asked to be devoid of attachment to the above mentioned enjoyment and opulence and become full of equanimity –
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
Traigunyavishaya veda nistraigunyo bhavarjun . Nirdvandvo nityasattvastho niryogakshem aatmavan . 45 .
हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकारसे तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले हैं; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनोंमें आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित योगक्षेमको न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो ।। ४५ ।।
Hey Arjun! The Vedas present all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas as mentioned above; Therefore, you should be free from attachment to those pleasures and their means, free from conflicts of joy and sorrow, not desirous of the yogakshema situated in the Supreme God and have an independent conscience. 45.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनको यह बात कही गयी कि सब वेद तीनों गुणोंके कार्यका प्रतिपादन करनेवाले हैं और तुम तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगोंमें और उनके साधनोंमें आसक्तिरहित हो जाओ । अब उसके फलस्वरूप ब्रह्मज्ञानका महत्त्व बतलाते हैं-
Relationship – In the previous verse, it was said to Arjun that all the Vedas are the ones that expound the functions of the three Gunas and you should become free from attachment to all the enjoyments and their means which are the functions of the three Gunas. Now, as a result, let us explain the importance of Brahmagyan-
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
Yavanarth udapane sarvatah samplutodake .
Tavan sarveshu vedeshu brahmanasya vijanatah . 46 .
सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मको तत्त्वसे जाननेवाले ब्राह्मणका समस्त वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।॥ ४६ ॥
Once a reservoir full of all sides is attained, a Brahmin who knows Brahman in essence has as much need in all the Vedas as he has in a small reservoir. 46 ॥
सम्बन्ध – इस प्रकार समबुद्धिरूप कर्मयोगका और उसके फलका महत्त्व बतलाकर अब दो श्लोकोंमें भगवान् कर्मयोगका स्वरूप बतलाते हुए अर्जुनको कर्मयोगमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहते हैं-
Relationship – Having thus explained the importance of Karmayoga in the form of equanimity and its results, now in two verses, God explains the nature of Karmayoga and asks Arjun to perform the work by remaining situated in Karmayoga –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
Karmanyevaadhikaraste maa faleshu kadachan .
Maa karmfalaheturbhurma te sango̕stvakarmani . 47 .
तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ॥ ४७ ॥
You have the right only to perform your duty, never to its fruits. Therefore you should not be the cause of the fruits of your deeds and you should not be attached even to not performing your duty. ॥ 47 ॥
सम्बन्ध- उपर्युक्त श्लोकोंमें यह बात कही गयी कि तुमको न तो कर्मोंके फलका हेतु बनना चाहिये और न कर्म न करने में ही आसक्त होना चाहिये अर्थात् कर्मोंका त्याग भी नहीं करना चाहिये। इसपर यह जिज्ञासा होती है कि तो फिर किस प्रकार कर्म करना चाहिये ?
इसलिये भगवान् कहते हैं-
Relationship – It was said in the above verses that you should neither become an object of fruit of your actions nor should you become attached to not doing any actions, that is, you should not even give up your actions. There is a curiosity that then how should one act?
That’s why God says-
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
yogasthah kuru karmani sangam tyaktva dhananjaya . siddhyasiddhayoh samo bhutva samatvam yog uchyate . 48 .
हे धनञ्जय ! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धिवाला होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्यकर्मोंको कर, समत्व ही योग कहलाता है ॥ ४८ ॥
Hey Dhananjay! By renouncing attachment and being equally intelligent in success and failure, you become established in Yoga and perform your duties; equanimity is called yoga. 48 ॥
सम्बन्ध-इस प्रकार कर्मयोगकी प्रक्रिया बतलाकर अब सकामभावकी निन्दा और समभावरूप बुद्धियोगका महत्त्व प्रकट करते हुए भगवान् अर्जुनको उसका आश्रय लेनेके लिये आज्ञा देते हैं-
Relationship – Having explained the process of Karmayoga in this way, now condemning the desire for success and revealing the importance of equanimity in the form of Buddhiyoga, Lord Arjuna is ordered to take refuge in it –
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
Duren hyavaram karm buddhiyogaddhananjaya .
Buddhau sharanamanvich krupanah falahetavah . 49 .
इस समत्वरूप बुद्धियोगसे सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धनञ्जय ! तू समबुद्धिमें ही रक्षाका उपाय ढूँढ़ अर्थात् बुद्धियोगका ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।॥ ४९ ॥
The work accomplished through this equanimous form of intellect is of very low grade. That’s why O Dhananjay! You should seek the means of protection only in having the same intelligence, that is, take shelter of the Yoga of the intellect only; Because those who become breadwinners are very poor. 49॥
सम्बन्ध – इस प्रकार अर्जुनको समताका आश्रय लेनेकी आज्ञा देकर अब दो श्लोकोंमें उस समतारूप बुद्धिसे युक्त महापुरुषोंकी प्रशंसा करते हुए भगवान् अर्जुनको कर्मयोगका अनुष्ठान करनेकी पुनः आज्ञा देकर उसका फल बतलाते हैं-
Relationship – Having thus ordered Arjun to take shelter of equanimity, now in two verses praising the great men with equanimous intelligence, God again orders Arjun to perform the ritual of Karmayoga and explains its result –
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥
Buddhiyukto jahatih ubhe sukritduskrute .
Tasmadyogay yujyasva yogah karmasu kaushalam . 50 .
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनोंको इसी लोकमें त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योगमें लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मोंमें कुशलता
अर्थात् कर्मबन्धनसे छूटनेका उपाय है ।॥ ५० ॥
An equanimous person gives up both virtue and sin in this world, that is, he becomes free from them. With this you engage in equanimous yoga; This equanimity of yoga is the skill in action.
That is, it is a way to get free from the bondage of karma. 50 ॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
Karmajam buddhiyukta hi falam tyaktva manishinah . Janmabandhavinirmuktah padam gacchhantyanamayam . 51 .
क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो निर्विकार परम पदको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥
Because the wise people with equanimity, by renouncing the fruits arising from their actions, become free from the bondage of birth and attain the supreme position without any vices. 51 ॥
सम्बन्ध – भगवान्ने कर्मयोगके आचरणद्वारा अनामय पदकी प्राप्ति बतलायी; इसपर अर्जुनको यह जिज्ञासा हो सकती है कि अनामय परमपदकी प्राप्ति मुझे कब और कैसे होगी ? इसके लिये भगवान् दो श्लोकोंमें कहते हैं-
Relationship – God explained the attainment of Anamay Padak through the practice of Karmayoga; On this, Arjun may be curious that when and how will I attain the supreme state of Anamaya? For this, God says in two verses-
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
Yada te mohakalilam buddhirvyatitarishyati .
Tada gantaasi nirvedam shrotavyasya shrutasya ch . 52.
जिस कालमें तेरी बुद्धि मोहरूप दलदलको भलीभाँति पार कर जायगी, उस समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ॥ ५२ ॥
When your intellect completely crosses the swamp of delusion, then you will attain detachment from all the pleasures of this world and the next, that you have heard and will hear about. ॥ 52 ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
Shrutivipratipanna te yada sthasyati nischala . Samadhavachala buddhistada yogamvapsyasi . 53 .
भाँति-भाँतिके वचनोंको सुननेसे विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मामें अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा अर्थात् तेरा परमात्मासे नित्य संयो हो जायगा ।। ५३ ।।
When your mind, which has been distracted by listening to different words, becomes unmoving and steady in God, then you will attain Yoga, that is, you will be constantly united with God. 53.
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने यह बात कही कि जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदलको सर्वथा पार कर जायगी तथा तुम इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंसे विरक्त हो जाओगे, तुम्हारी बुद्धि परमात्मामें निश्चल ठहर जायगी, तब तुम परमात्माको प्राप्त हो जाओगे। इसपर परमात्माको प्राप्त स्थितप्रज्ञ सिद्धयोगीके लक्षण और आचरण जाननेकी इच्छासे अर्जुन पूछते हैं-
Relationship – In the previous verses, God said that when your intellect will completely cross the swamp of illusion and you will become detached from all the pleasures of this world and the next world, your intellect will remain fixed in God, then you will attain God. On this, Arjun asks, desiring to know the characteristics and conduct of an intelligent Siddha Yogi who has attained the state of God:
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
Arjun uvach
Sthitapragnyasya ka bhasha samadhisthasya keshav . Sthitadhih kim prabhashet kimasit vrajet kim . 54 .
अर्जुन बोले- हे केशव ! समाधिमें स्थित परमात्माको प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुषका
क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चला है ? ॥ ५४ ॥
Arjun said- O Keshav! What are the signs of a man of steady intellect who has attained the Supreme Being in Samadhi? How does that man of steady intellect speak, sit and walk? ॥54॥
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें अर्जुनने परमात्माको प्राप्त हुए सिद्ध योगीके विषयमें चार बातें पूछी हैं; इन चारों बातोंका उत्तर भगवान्ने अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त दिया है, बीचमें प्रसङ्गवश दूसरी बातें भी कही हैं। इस अगले श्लोकमें अर्जुनके पहले प्रश्नका उत्तर संक्षेपमें देते हैं-
Relation – In the previous verse, Arjuna has asked four questions about a Siddha Yogi who has attained God; God has answered all these four questions till the end of the chapter, and in between he has also said other things as per the context. In this next verse, Arjuna’s first question is answered briefly-
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
Prajahati yada kaman sarvan parth manogatan . Aatmanyevatmana tushtah sthitapragnyastadochyate . 55 .
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे आत्मामें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।॥ ५५ ॥
Sri Bhagavan said- O Arjun! When a man completely abandons all the desires of his mind and remains satisfied with the self, then he is called a person of steady wisdom. ॥55॥
सम्बन्ध–स्थितप्रज्ञके विषयमें अर्जुनने चार बातें पूछी हैं, उनमेंसे पहला प्रश्न इतना व्यापक है कि उसके बादके तीनों प्रश्नोंका उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। इस दृष्टिसे तो अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त उस एक ही प्रश्नका उत्तर है; पर अन्य तीन प्रश्नोंका भेद समझनेके लि ऐसा समझना चाहिये कि अब दो श्लोकोंमें ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर दिया जाता है—
Relation- Arjun has asked four questions about sthitapragy, the first question out of which is so broad that the three questions after it are included in it. From this point of view, till the end of the chapter, there is an answer to that one question only; but to understand the difference between the other three questions, it should be understood that now the answer to the second question ‘how does a sthitapragy speak’ is given in two verses-
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
Duhkheshvanudvignamanah sukheshu vigataspruhah . Vitaragabhayakrodhah sthitadhirmuniruchyate . 56 .
दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता, सुखोंकी प्राप्तिमें जो सर्वथा निःस्पृ है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।। ५६॥
The one who does not get agitated in his mind after receiving sorrows, who is completely disinterested in getting pleasures and whose attachment, fear and anger have been destroyed, such a sage is said to have a stable mind. 56॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।॥ ५७ ॥
Yah sarvatranabhisnehastattatprapya shubhashubham . Nabhinandati na dveshti tasya pragnya pratishthita .. 57 .
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥ ५७ ॥
A man who is devoid of any affection towards anything and on receiving any good or bad thing neither gets pleased nor hates it, his intellect is stable. ॥ 57॥
सम्बन्ध – ‘स्थिरबुद्धिवाला योगी कैसे बोलता है ?’ इस दूसरे प्रश्नका उत्तर समाप्त करके अब भगवान् ‘वह कैसे बैठता है ?’ इस तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियोंका सर्वथा उसके वशमें हो जाना और आसक्तिसे रहित होकर अपने-अपने विषयोंसे उपरत हो जाना ही स्थितप्रज्ञ पुरुषका बैठना है-
Relationship – ‘How does a yogi with stable intellect speak?’ After finishing the answer to this second question, now God asks ‘How does he sit?’ While answering this third question, it is shown that the sitting position of a Sthitapragya Purusha is to be completely under the control of the senses of a Sthitapragya Purusha and to be free from attachment and to be above one’s own objects –
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
Yada sanharate chayam kurmo̕nganiv sarvashah . Indriyanindriyaarthebhyastasya pragnya pratishthita . 58 .
और कछुआ सब ओरसे अपने अङ्गोंको जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये) ॥ ५८ ॥
And just as a tortoise withdraws its limbs from all sides, similarly when a man withdraws his senses from the sense-objects in every way, then his intellect is stable (it should be considered so). ॥ 58॥
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें तीसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञके बैठनेका प्रकार बतलाकर अब उसमें होनेवाली शङ्काओंका समाधान करनेके लिये अन्य प्रकारसे किये जानेवाले इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा स्थितप्रज्ञके इन्द्रियसंयमकी विलक्षणता दिखलाते हैं-
Relationship – While answering the third question in the previous verse, by telling the type of sitting of the Sthitapragya, now to solve the doubts arising in it, we show the uniqueness of the sense control of the Sthitapragya as compared to the other types of sense control –
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
vishaya vinivartante niraharasya dehinah . rasavarjam raso̕pyasya param drushtva nivartate . 59 .
इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी तो आसक्ति भी परमात्माका साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ॥ ५९ ॥
Even for a person who does not grasp the objects through the senses, only the objects are destroyed, but the attachment residing in them is not destroyed. Even the attachment of this person who is situated in wisdom goes away after realizing God. 59॥